मुंबई: महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 के लिए ऑल इंडिया उलेमा बोर्ड, महाराष्ट्र ने महाविकास अघाड़ी (कांग्रेस-उद्धव और शरद पवार का गठबंधन-MVA) को समर्थन देने के लिए 17 शर्तें रखी हैं। इन मांगों में वक्फ बिल का विरोध, नौकरी और शिक्षा में 10% मुस्लिम आरक्षण, इमामों और मौलानाओं को मासिक 15,000 रुपये भत्ता, और सत्ता में आने पर RSS पर प्रतिबंध लगाने जैसी शर्तें शामिल हैं। इस बाबत ऑल इंडिया उलेमा बोर्ड, महाराष्ट्र के अध्यक्ष नायाब अंसारी ने MVA पत्र दिया है। रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस और NCP (शरद पवार) ने मुस्लिम समुदाय की सभी शर्तें मान ली है और उलेमा बोर्ड के नेताओं को चुनाव प्रचार के लिए भी बुलाया है। महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले और शरद पवार की एनसीपी ने उलेमा बोर्ड को समर्थन के लिए आभार जताते हुए सत्ता में आने पर उनकी मांगें पूरी करने का वादा किया है। उलेमा बोर्ड की 17 मांगें इस प्रकार हैं: 1. वक्फ बिल का विरोध किया जाए। 2. नौकरी और शिक्षा में 10% मुस्लिम आरक्षण। 3. महाराष्ट्र के 48 जिलों में मस्जिद, कब्रिस्तान और दरगाह की ज़ब्त संपत्तियों का सर्वेक्षण। 4. वक्फ बोर्ड के विकास के लिए 1000 करोड़ रुपये का फंड। 5. 2012 से 2024 तक दंगों में फंसे निर्दोष मुसलमानों की रिहाई। 6. मौलाना सलमान अजहरी को रिहा करने के लिए 30 सांसदों द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र। 7. मस्जिदों के इमाम और मौलानाओं को मासिक 15,000 रुपये का भत्ता। 8. पुलिस भर्ती में मुस्लिम युवाओं को प्राथमिकता। 9. शिक्षित मुस्लिम समुदाय को नौकरियों में प्राथमिकता। 10. रामगिरी महाराज और नितेश राणे को जेल में डालने की मांग। 11. सरकार बनने पर मुफ्ती, मौलाना, इमामों को सरकारी समितियों में शामिल करना। 12. मुस्लिम समुदाय के 50 उम्मीदवारों को चुनावी टिकट। 13. महाराष्ट्र राज्य वक्फ बोर्ड में 500 कर्मचारियों की भर्ती। 14. वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर अतिक्रमण हटाने का कानून। 15. पैगंबर के खिलाफ बोलने वालों पर कानूनी प्रतिबंध। 16. सत्ता में आने पर आरएसएस पर प्रतिबंध। 17. सभी मांगों की मंजूरी के लिए इंडिया गठबंधन के नेताओं से लिखित आश्वासन और चुनाव प्रचार के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध कराना। हालाँकि, महाराष्ट्र में सत्ता की बाट जोह रही कांग्रेस-NCP और शिवसेना ने मुस्लिम वोट पाने के लिए ये तमाम मांगें स्वीकार कर ली हैं, लेकिन इसने महाराष्ट्र और देशभर की राजनीति में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या इस तरह की मांगें लोकतंत्र के लिए सही हैं? क्या इन मजहबी मांगों के आधार पर अपने वोट बेचना और पार्टियों का इसे मान लेना तुष्टिकरण नहीं है? क्या यह वही तुष्टिकरण नहीं है जिसके लिए कांग्रेस पर अक्सर आरोप लगता रहा है? एक ऐसे लोकतंत्र में जहां सभी नागरिकों को समान अधिकार हैं, क्या केवल वोट बैंक की खातिर किसी विशेष समुदाय की मांगों को प्राथमिकता देना और अन्य समुदायों की उपेक्षा करना उचित है? या फिर ये मुस्लिम समुदाय के वोटिंग पैटर्न का एक और नमूना है, जहाँ महंगाई, राष्ट्रीय सुरक्षा, शिक्षा, चिकित्सा जैसे मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, केवल मजहब के नाम पर वोट डाले जाते हैं। जम्मू कश्मीर में भी यही देखने को मिला, जहाँ लोगों को हड़ताल-पत्थरबाज़ी आदि से आज़ादी दिलाने के बाद, शिक्षा-स्वास्थ्य समेत कई संस्थान खोलने के बाद, वहां के लोगों की कमाई और जीवन स्तर सुधारने के बावजूद उन्होंने मजहब के नाम पर ही वोट किया है और अब भी प्रदेश विधानसभा में उनकी पहली मांग विकास, रोज़गार, शिक्षा नहीं, बल्कि 370 की वापसी ही है। दिल्ली के 10 हज़ार बस मार्शल्स की नौकरी वापस मिली..! आतिशी बोलीं- हमने लड़कर दिलाई हिंदू-मुस्लिम कपल को झटका, शादी पर MP हाई कोर्ट की अंतरिम रोक '20 लाख महिलाओं को इसी महीने मिलेंगे 5 हज़ार..', ओडिशा की उपमुख्यमंत्री का बड़ा ऐलान