स्वाधीनता प्राप्ति के लिए जो मशालें जलीं, और वर्ष 1857 में जो तलावारें चमकीं उसने अंग्रेजी राजव्यवस्था के दाॅंत खट्टे कर दिए। इसके बाद शनैः शनैः स्वाधीनता प्राप्ति का संघर्ष आगे बढ़ता चला गया। स्वराज की प्राप्ति के लिए चंद्रशेखर आज़ाद, लोकमान्य तिळक, रासबिहार बोस, भगत सिंह, खुदीराम बोस, महात्मा गांधी, मदन लाल ढींगरा समेत अनगिनत नामों ने अपना जीवन और प्राण अर्पित कर दिए। फलस्वरूप 15 अगस्त 1947 को भारतीय आसमान में तिरंगा फहराया। स्वाधीनता प्राप्ति के अवसर पर मध्यरात्रि में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश को संबोधित किया। यह अवसर ऐतिहासिक था। मगर अब वर्ष 2017 में भारत स्वाधीनता के 70 वर्ष पूर्ण कर चुका है। 70 के इस दौर में भारत में युवा लहर तेजी से दौड़ रही है। इनके पास जोश है तो कुछ सपने भी हैं। यह एक बहुत ही नया दौर है। भारतीयता विश्व पटल पर नई उमंगों के साथ लहरा रही है, समूचे विश्व में भारत की पहचान एशिया के अग्रणी देशों में हो रही है। एक ऐसा देश जो ब्रिटिश राजव्यवस्था का उपनिवेश था। अंग्रेजों के क्रूर शासन के विरूद्ध भारतीयों ने क्रांति की और फिर भारत स्वयं अपने भाग्य का विधाता बन गया। वह भारत जिसमें कई धर्मों, पंथों, संप्रदायों, मतों, जातियों को मानने वाले रहा करते हैं मगर सभी भारतीयता के रंग में रंग नज़र आते हैं। संभवतः इसीलिए कविवर रविंद्रनाथ टैगोर ने इसे महामानवों के समुद्र के तौर पर वर्णित किया है। हालांकि भारत वर्ष 1947 की दासता से मुक्त होने के बाद अब काफी सशक्ततौर पर विश्व समुदाय के सामने उभरा है। जिसमें 21 वीं सदी का नवोन्मेष डिजीटल इंडिया और मेक इन इंडिया के तौर पर सामने आता है। भले ही डिजीटल इंडिया और मेक इन इंडिया किसी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना हो मगर इस माध्यम से भारत की युवा पीढ़ी बहुत प्रोत्साहित हुई है। एक दौर था जब किसी गांव या नगर में अपने सुदूर रहने वाले अपने परिजन या रिश्तेदार की कोई पाती डाकिया लेकर आया करता था और कई बार उसे बाचकर सुनाया करता था लेकिन अब तो भारत इससे कहीं आगे निकल आया है। पैन लैस पेपर लैस वर्क के इस दौर में ईमेल से भी तेज़ी से सोशल मीडिया मैसेजिंग सर्विस व्हाट्स एप और फेसबुक का चलन है अब लोग पोस्ट आॅफिस के लेटर बाॅक्स में पोस्ट डालते नहीं हैं बल्कि सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं। भारत में उन्नत सड़कों का जाल बिछाया गया है इससे गांवों और उपनगरों में रहने वाले लोगों के पास रोजगार के अवसर बढ़े हैं। ऐसे में उपनगरीय विकास भी हो रहा है। शिक्षा और संचार के माध्यम बढ़े हैं। आधुनिक दौर में लोग कई शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में अध्ययन का लाभ ले रहे हैं हालांकि जब हम मुड़कर देखते हैं तो हम पाते हैं कि आज भी हमारे देश में ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाॅं पर समय पर सुविधाऐं न मिलने के कारण रास्ते में ही प्रसव हो जाता है। किसी मंदिर में यदि कोई व्यक्ति दर्शन करना चाहे तो उसका दबंग होना महत्वपूर्ण होता है। आज भी दबंग के घर के सामने से दलित घोड़ी चढ़कर नहीं निकल सकता। हमारे पास डिग्रियों का अंबार लगा है लेकिन देश का नौजवान नौकरियों के लिए दर दर भटक रहा है। जो पाठ्यक्रम करके वह निकल चुका है या तो वह आउट डेटेड हो चुका है या फिर उस पाठ्यक्रम में वह स्किल शामिल नहीं है जो उसे बाजार में नौकरी करने के लिए काम आने वाली है। ऐसे में वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकने पर मजबूर है। हमारी शिक्षा पद्धति आज भी 1835 की मैकाले आधारित सोच पर विकसित है। लाॅर्ड मैकाले ने हमारी शिक्षा व्यवस्था में वह बीज वपन किया था जिसने हमारी जड़ों को खोखला कर दिया। 2 फरवरी 1835 को ब्रिटेन की संसद में मैकाले ने ही कहा था मैं भारत के कोने कोने में घुमा हूँ। मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया,जो भिखारी हो,जो चोर हो,इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है,इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं, कि मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे,जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है,और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था,उसकी संस्कृति को बदल डालें,क्युकी अगर भारतीय सोचने लग गए कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है,और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्णरूप से गुलाम भारत। लाॅर्ड मैकाले के ये शब्द वस्तुतः सत्य परिणीत होते नज़र आते हैं। मौजूदा समय में हमारे देश में संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है। कई ऐसी घटनाऐं सामने आ रही हैं जिसमें बेटा अपने पिता या फिर मां या दादी को बुढ़ापे में ही सहारा नहीं दे पाता उसका ध्यान केवल मां, दादी या पिता की संपत्ती में ही है। सेवा, परोपकार,निश्च्छल रहना ये शब्द और व्यवहार केवल शब्द रह गए हैं जो इन पर चलता है उसे किसी योग्य नहीं माना जाता। हाॅं मगर आज भी पश्चिम भारत की ओर ही अपनी उम्मीदों भरी निगाह किए हुए देखता है कि जब सबेरा होगा तो वह भारत की ओर से ही होगा। इसका कारण यह है कि मैकाले की सोच ने भले ही हमें माॅल कल्चर अपनाने और आधुनिकता के रहन सहन में ढलने के लिए विवश कर दिया हो मगर मिट्टी से उठने वाली सौंधी खूशबू को हम कभी भूला न सकेंगे।