आज -दुष्यन्त कुमार अक्षरों के इस निविड़ वन में भटकतीं ये हजारों लेखनी इतिहास का पथ खोजती हैं ...क्रान्ति !...कितना हँसो चाहे किन्तु ये जन सभी पागल नहीं। रास्तों पर खड़े हैं पीड़ा भरी अनुगूँज सुनते शीश धुनते विफलता की चीख़ पर जो कान स्वर-लय खोजते हैं ये सभी आदेश-बाधित नहीं। इस विफल वातावरण में जो कि लगता है कहीं पर कुछ महक-सी है भावना हो...सवेरा हो... या प्रतीक्षित पक्षियों के गान- किन्तु कुछ है; गन्ध-वासित वेणियों का इन्तज़ार नहीं। यह प्रतीक्षा : यह विफलता : यह परिस्थिति : हो न इसका कहीं भी उल्लेख चाहे खाद-सी इतिहास में बस काम आये पर समय को अर्थ देती जा रही है। -दुष्यन्त कुमार