यक़ीन है कि गुमाँ है मुझे नहीं मालूम... यक़ीन है कि गुमाँ है मुझे नहीं मालूम ये आग है कि धुआँ है मुझे नहीं मालूम ये हर तरफ़ है कोई महफ़िल-ए-तरब बरपा कि बज़्म-ए-ग़म-ए-ज़दगाँ है मुझे नहीं मालूम लिए तो फिरता हूँ इक मौसम-ए-वजूद को मैं बहार है कि ख़िज़ाँ है मुझे नहीं मालूम वो रंग-ए-गुल तो उसी ख़ाक में घुला था कहीं मगर महक वो कहाँ है मुझे नहीं मालूम ख़बर तो है कि यहीं क़र्या-ए-मलाल भी है ये कौन महव-ए-फ़ुगाँ है मुझे नहीं मालूम मैं तुझ से दूर उसी दश्त-ए-ना-रसी में हूँ गुम इधर तू नौहा-कुनाँ है मुझे नहीं मालूम ये दाग़-ए-इश्क़ जो मिटता भी है चमकता भी है ये ज़ख़्म है कि निशाँ है मुझे नहीं मालूम गुज़रता जाता हूँ इक अर्सा-ए-गुरेज़ से मैं ये ला-मकाँ कि मकाँ है मुझे नहीं मालूम रवाँ-दवाँ तो है ये जू-ए-ज़िंदगी हर दम मगर किधर को रवाँ है मुझे नहीं मालूम ये कशमकश जो मन-ओ-तू के दरमियाँ है सो है मियान-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है मुझे नहीं मालूम ये कू-ए-ख़ाक है या फिर दयार-ए-ख़्वाब कोई ज़मीन है कि ज़माँ है मुझे नहीं मालूम यहीं कहीं पे वो ख़ुश-रू था आज से पहले मगर वो आज कहाँ है मुझे नहीं मालूम. -अबरार अहमद