अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी: तहज़ीब हाफ़ी

अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी वो इक परी जो मुझे सब्ज़ करने आई थी  

वो इक चराग़-कदा जिस में कुछ नहीं था मेरा वो जल रही थी वो क़िंदील भी पराई थी न जाने कितने परिंदो ने इस में शिरकत की कल एक पेड़ की तरक़ीब-ए-रू-नुमाई थी हवाओ आओ मिरे गाँव की तरफ देखो जहाँ ये रेत है पहले यहाँ तराई थी किसी सिपाह ने ख़ेमे लगा दिये है वहाँ जहाँ ये मैं ने निशानी तिरी दबाई थी गले मिला था कभी दुख भरे दिसम्बर से मिरे वजूद के अंदर भी धुँद छाई थी

- तहज़ीब हाफ़ी

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