आखिर कैसा देश है ये? - कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है, सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम। गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि - कविताओं को खँखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ, कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है, कच्चे रास्तों पर तख्तियाँ नहीं होतीं। पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना। आखिर कैसा देश है ये? - कि बाँध बनकर कई आँखों को बंजर बना देतें हैं, सड़क बनते ही फुटपाथ पर आ जाती है पूरी की पूरी बस्ती। कच्ची सड़क के गड्ढे बचे हुआ बस्तीपन के सीने पर आ जाते हैं। बूढी आँखों में बसा बसेरे का सपना रोज कुचलतीं है लंबी-लंबी गाडियाँ। समय के सहारे छोड़ दिए गए घावों को समय कुरेदता रहता है अक्सर। आखिर कैसा देश है ये? - कि बच्चे देश से अधिक जानना चाहतें हैं रोटी के विषय में, स्वर्ण-थाल में छप्पन भोग और राजकुमार की कहानियों को झूठ कहते हैं, मानतें हैं कि घास खाना मूर्खता है जब उपलब्ध हो सकती हो रोटी। छब्बीस जनवरी उनके लिए दो लड्डू, एक छुट्टी से अधिक कुछ भी नहीं। आखिर कैसा देश है ये? - कि माट्साब कमउम्र लड़कियों को पढाते हैं विद्यापति के रसीले गीत, मुखिया जी मौका देख न्यौतते है - कि मन हो तो चूस लेना मेरे खेत से गन्ने। इनारे पर पानी भरती उसकी माँ से कहते है कि तुम पर गई है बिल्कुल। दुधारू माँ अपने दुधमुहें की सोच कर थूक घोंट मुस्कुराती है बस - कि अगर छूट गई घरवाले की बनिहारी भी तो बिसुकते देर न लगेगी। आखिर कैसा देश है ये? - कि विद्रोही कविताएँ राजकीय अभिलेखों का हिस्सा नहीं है। तेज रफ़्तार सड़कें रुके हुए फुटपाथों के मुँह पर धुँआ थूक रही हैं। बच्चों से कहो देशप्रेम तो वो पहले रोटी मांगते हैं। कमउम्र लड़कियों से पूछो उनका हाल तो वो छुपातीं हैं अपनी अपुष्ट छाती। माँ के लिए बेटी के कौमार्य से अधिक जरूरी है दुधमुहें की भूख। वातानुकूलित कक्ष तक विकास के आँकड़े कहाँ से आते हैं आखिर? कविताओं के हर प्रश्न पर मौन रहती है संसद और सड़कें भी। निराश कवि मिटा देना चाहता है नाखून पर लगा लोकतंत्र का धब्बा। अरुण श्री