अयोध्या के बाद देश में एक और मंदिर-मस्जिद का मुद्दा तूल पकड़ता नज़र आ रहा है, यह मामला यूपी में ही स्थित हिन्दुओं की पवित्र नगरी वाराणसी में मौजूद काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद से संबंधित है। वैसे तो काशी मंदिर-मस्जिद विवाद दशकों पुराना है, लेकिन हाल ही में वाराणसी कोर्ट ने जब ज्ञानवापी मस्जिद का भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने का आदेश दिया है तो इस मुद्दे को एक बार फिर से हवा मिल गई है और हिन्दू-मुस्लिम दोनों पक्ष इस मामले पर अपना अपना पक्ष रख रहे हैं। मुस्लिम पक्ष तो वाराणसी कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने के लिए इलाहबाद हाई कोर्ट तक पहुँच गया है। अंजुमन इंतजामिया कमिटी ने ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे कराने के आदेश पर रोक लगाने के लिए हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी है। उनका कहना है कि वाराणसी कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश 'प्लेसेज ऑफ वरशिप' एक्ट 1991 का उल्लंघन है, इसलिए इस आदेश पर रोक लगाई जानी चाहिए। वहीं हिन्दू पक्ष का कहना है कि मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर (12 ज्योतिर्लिंगों में से एक) को ध्वस्त कर वहां ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया था। हिन्दू पक्ष का दावा है कि ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर ही भगवान शिव का स्वम्भू ज्योतिर्लिंग मौजूद है, जिसपर मस्जिद बना दी गई है। वहीं, मुस्लिम पक्ष मस्जिद का सर्वे कराने के लिए भी राज़ी नहीं है। AIMIM के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने भी वाराणसी कोर्ट के आदेश पर कहा कि AIMPLB और मस्जिद कमेटी को मामले में तुरंत अपील करके सुधार करवाना चाहिए। उन्होंने कहा कि ASI द्वारा धोखाधड़ी किए जाने की संभावना है और इतिहास दोहराया जाएगा, जैसा कि बाबरी मस्जिद के मामले में किया गया था। वहीं, मंदिर की तरफ से कोर्ट में पेश हुए वकील ने कहा कि ये हिंदू पक्ष के लिए बड़ी जीत है। ऐसे में यह मुद्दा बेहद संवेदनशील हो गया है और इसका असर पूरे देश पर पड़ सकता है। यही कारण है कि हम आपके सामने वो तथ्य रखने जा रहे हैं, जो इस मुद्दे से संबंधित हैं, ताकि आप किसी अफवाह या ग़लतफहमी का शिकार न हों। काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास :- वैसे तो हिन्दुओं का दावा है कि काशी स्थित विश्वनाथ मंदिर अति प्राचीन है और कल्प के अंत यानी क़यामत या प्रलय के समय भी इसका लोप नहीं होता, भगवान शिव स्वयं इसे अपने त्रिशूल पर धारण करते हैं। मूल काशी विश्वनाथ मंदिर इतना प्राचीन है कि इसकी वास्तविक निर्माण तिथि के बारे में कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन बताया जाता है कि राजा हरिश्चंद्र ने 11वीं सदी में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था, यानी मंदिर वहां मौजूद था, उसकी मरम्मत की गई थी। इसके बाद वर्ष 1194 में मुहम्मद गौरी ने यहां आक्रमण कर इस मंदिर को तुड़वा दिया था। इसके बाद इस मंदिर के पुनर्निर्माण और उसपर आक्रमण की कई घटनाएं हुईं। वर्ष 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने इस मंदिर पर आक्रमण कर यहां तोड़फोड़ मचाई, जिसे 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने वापस ठीक किया। कहा यह भी जाता है कि 1632 में शाहजंहा ने इसे तुड़वाने के लिए सेना की एक टुकड़ी भेजी थी, लेकिन हिन्दुओं के विरोध के बाद मुग़ल सेना वापस लौट गई थी। लेकिन 18 अप्रैल 1669 को मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने एक फरमान जारी करते हुए काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दे डाला। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। जिसके बाद बड़ी संख्या में मुग़ल सेना बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की तरफ बढ़ी, देखते ही देखते विश्वनाथ मंदिर के पास बह रही गंगा नदी का पानी हिन्दुओं के खून से लाल हो उठा और मुग़ल सेना काशी मंदिर में तोड़फोड़ मचाने लगी। उसी समय वहां मंदिर के ही मलबे से मस्जिद बना दी गई, जहां मूल मंदिर हुआ करता था। इसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी मस्जिद रखा गया। यहाँ आपको बता देना जरुरी है कि मुख्य लड़ाई जो है वो आदि विश्वेश्वर मंदिर की है, जिसके ऊपर ज्ञानवापी मस्जिद बनी हुई है, जिसको औरंगज़ेब ने ध्वस्त करवाया था। आज भी भगवान शिव के गण नंदी अपने स्वामी की राह देखते हुए ज्ञानवापी मस्जिद की ओर मुंह किए बैठा है। यह किसी भी हिन्दू को या हिन्दू धर्म की जानकारी रखने वाले को बताने की आवश्यकता नहीं है कि नंदी महाराज का मुख अपने स्वामी भगवान शिव की तरफ रहता है, न कि किसी अन्य दिशा में। कहा जाता है कि इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में औरंगज़ेब द्वारा तोड़े गए मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। लेकिन आपको बता दें कि माता अहिल्याबाई ने जो मंदिर बनवाया है वो ज्ञानवापी मस्जिद (पूर्व में आदि विश्वेश्वर मंदिर) के बगल में बाबा विश्वनाथ के नाम से बनवाया गया है। जो कि एक अलग ही मंदिर है, हालाँकि, उसी परिसर में बना हुआ है और बड़ी संख्या में आज भी वहां श्रद्धालु आते हैं। क्या कहता है मुस्लिम पक्ष :- इस मुद्दे पर मुस्लिम पक्ष 1991 में बनाए गए प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट, 1991 या उपासना स्‍थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 को अपनी दलील के रूप में पेश करता है। बता दें कि इस अधिनियम को 1991 में भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया था, उस वक़्त केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में पी वी नरसिम्हाराव की सरकार थी। यह कानून 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को एक आस्था से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने और किसी स्मारक के धार्मिक आधार पर रखरखाव पर रोक लगाता है। हालांकि, मान्यता प्राप्त प्राचीन स्मारकों पर इसकी धाराएं लागू नहीं होंगी। सीधे शब्दों में समझें तो 15 अगस्त, 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था वो आज, और भविष्य में, भी उसी का रहेगा। और मुस्लिम पक्ष का कहना है कि 15 अगस्त, 1947 के समय ज्ञानवापी मस्जिद में नमाज़ पढ़ी जाती थी, इस वजह से प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट, 1991 के तहत उसके साथ छेड़खानी करने का अधिकार किसी को नहीं है। यहाँ एक बात और गौर करने वाली है कि, मुस्लिम पक्ष ने कभी इस संबंध में कभी तर्क नहीं दिए कि काशी का मंदिर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने नहीं तोड़ा, शायद इसके प्रमाण ही मौजूद न हों। न ही अदालत में इस मुद्दे पर जिक्र हुआ, जिक्र होता है, तो बस 1991 में कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए उस कानून का, जिसमे धर्मस्थलों को 1947 वाली स्थिति में रखने की बात कही गई है। लेकिन यही एक कानून नहीं है, इससे पहले 1983 में उत्तर प्रदेश सरकार ने श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 के मुताबिक, मंदिर में पूजा पद्धति के प्राधिकारी मंदिर के उपासक हैं। अधिनियम की धारा 17(1) में लिखा है कि मंदिर के न्यास बोर्ड से नियंत्रण रहते हुए मंदिर के प्रबंध और नियंत्रण की बाबत मुख्य कार्यपालक अधिकारी मंदिर के सेक्युलर कार्यों के लिए जिम्मेदार होगा। कानून की धारा 22(1) के मुताबिक, मंदिर के अर्चक मंदिर की धार्मिक पूजा पद्धति, परंपरागत धार्मिक विधि विधान को कार्यान्वित करने और संरक्षित रखने के लिए जिम्मेदार होंगे। न्यास परिषद, मुख्य कार्य पालक अधिकारी या अन्य कोई भी अधिकारी अर्चकों के धार्मिक कार्यक्षेत्र में किसी भी तरह से हस्तक्षेप नहीं करेंगे। देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी 14 मार्च 1997 को यही आदेश दिया है, जिसका पालन बाध्यकारी रूप से अनिवार्य है। कोर्ट में पहली बार कब गया यह मामला :- पहली बार 1936 में भी ये मामला अदालत में गया था। उस समय हिंदू पक्ष नहीं, बल्कि मुस्लिम पक्ष ने वाराणसी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। ये याचिका दीन मोहम्मद नाम के एक शख्स ने दाखिल की थी और अदालत से मांग की थी कि पूरे ज्ञानवापी परिसर की जमीन को मस्जिद की जमीन घोषित कर दिया जाए। इसके बाद साल 1937 में अदालत ने इस पर फैसला देते हुए दीन मोहम्मद के दावे को खारिज कर दिया गया, हालांकि, अदालत ने विवादित स्थल पर नमाज पढ़ने की इजाजत दे दी। इस केस की सुनवाई के दौरान एक और दिलचस्प बात हुई, जिसमे अंग्रेज़ अफसर ने 1585 में बने प्राचीन विश्वनाथ मंदिर का नक्शा अदालत के सामने रखा, नक़्शे में बीच का जो हिस्सा है वही पर प्राचीन मंदिर का गर्भगृह माना जाता है। इस नक्शे को अदालत में पेश करते हुए अंग्रेज अफसरों ने कहा भी था कि इसके ही कुछ हिस्से में मस्जिद का निर्माण किया गया है। 1937 में वाराणसी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने जो फैसला दिया था, उसमें एक जगह न्यायमूर्ति ने कहा है कि ज्ञानकूप के उत्तर में ही भगवान का मंदिर स्थित है, क्योंकि पूरे वाराणसी में दूसरा कोई ज्ञानवापी कूप नहीं है। जज ने अपने फैसले में यह भी लिखा था कि एक विश्वनाथ मंदिर है और वो ज्ञानवापी परिसर के भीतर ही है। इसी केस की सुनवाई के दौरान ही बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) के प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर एएस आल्टेकर का बयान रिकॉर्ड किया गया था, जिसमें उन्होंने स्कंद पुराण सहित कई प्राचीन ग्रंथों का हवाला देते हुए बताया था कि ज्ञानवापी कूप के उत्तर में ही भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग स्थित है। अब एक बार फिर यह मामला अदालत में है और देश का माहौल धीरे-धीरे गरम हो रहा है, उम्मीद है कि शांति से और तर्कों से न्यायपालिका द्वारा इसका समाधान निकलेगा और देश में दोनों समुदाय अमन-चैन से रहेंगे। मुख़्तार अंसारी: दादा रहे कांग्रेस अध्यक्ष, चाचा उपराष्ट्रपति, खुद पर दर्ज हैं हत्या के 18 केस आखिर क्या है नक्सलवाद ? जानिए 'लाल आतंक' का पूरा इतिहास इस्लाम न स्वीकारने पर औरंगज़ेब ने कटवा दी थी गुरु तेगबहादुर की गर्दन