क्या समाप्त हो जाएगा पटरियों के टूटने का डर ?

रेलवे ने भविष्य में पटरियों पर अकेले जिंक के बजाय जिंक व एल्यूमीनियम के मिश्रण से कोटिंग का निर्णय लिया है. यह निर्णय पटरियों के क्षरण के कारण दुर्घटनाओं से परेशान होकर लिया गया है. इससे पटरियां ज्यादा दिनों तक चलेंगी और उनमें फ्रैक्चर भी कम होंगे. इन पटरियों का उपयोग खासकर तटीय इलाकों में होगा, जहां क्षारीय मौसम व आद्र्रता के कारण पटरियां जल्दी क्षतिग्रस्त होती हैं. रिसर्च डिजाइन्स एंड स्टैंडर्डस आर्गनाइजेशन (आरडीएसओ) की ओर से इस मिश्रण की कोटिंग के मानक तय किए जाने के बाद रेलवे बोर्ड ने जोनल रेलों और रेल निर्माताओं को इसके उपयोग की हरी झंडी दे दी है.

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भारतीय रेल नेटवर्क लंबे अरसे से पटरियों के क्षरण की समस्या से जूझ रही है. इस वजह से न केवल पटरियां समय से पहले अपनी दृढ़ता खो देती हैं, बल्कि इससे उनमें फ्रैक्चर और उस कारण दुर्घटनाओं का खतरा भी बना रहता है. इस समस्या से निपटने के लिए 2005 में रेलवे बोर्ड ने पटरियों पर जिंक मेटलाइजेशन (कोटिंग) करने का निर्णय लिया था. 2006 में आरडीएसओ ने इसके मानक भी तय कर दिए थे. इसके तहत उत्पादन के बाद पटरियों पर जिंक की मूल परत के बाद चार ऊपरी परतें और चढ़ाई जाती थीं. परंतु वक्त के साथ यह तकनीक पुरानी पड़ गई है, क्योंकि विकसित देशों में रेल मेटलाइजेशन को ज्यादा टिकाऊ बनाने के लिए अकेले जिंक के इस्तेमाल के बजाय जिंक व एल्यूमीनियम के मिश्रण (85 फीसद जिंक व 15 फीसद एल्यूमीनियम) का उपयोग होने लगा है.

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आपकी जानकारी के लिए बता दे कि इस तकनीक की लागत भी ज्यादा नहीं है, क्योंकि इसमें केवल एक सतह की कोटिंग करने की जरूरत पड़ती है. जिंक-एल्यूमीनियम कोटिंग की खास बात यह है कि पटरी की क्षरण प्रक्रिया के दौरान केवल इसी ऊपरी परत को क्षति पहुंचती है, जबकि भीतर का स्टील ज्यों-का-त्यों सुरक्षित बना रहता है. माकूल उपकरणों से सुसज्जित रेलवे वर्कशॉप में प्रशिक्षित कर्मचारियों द्वारा इलेक्टिक आर्क स्प्रे व ब्लास्टिंग इक्विपमेंट इत्यादि की सहायता से रेल पटरियों पर आसानी से कोटिंग की जा सकती है.विशेष स्टील से निर्मित इन पटरियों की आयु सामान्यतया 12 वर्ष होती है. परंतु क्षरण के कारण ये अक्सर दो-तीन सालों में ही अपनी दृढ़ता खोने लगती हैं. इससे इनमें दरारें पड़ने लगती हैं, जो ट्रेन दुर्घटनाओं का बड़ा कारण हैं.

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