इंटरनेशनल टाइगर डे: बाघ भूखा भी हो, तो भी घास नहीं खाता

आज अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस है, इस दिवस का मकसद जंगली बाघों के आवास के संरक्षण और विस्तार को बढ़ावा देने के साथ-साथ बाघ संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाना है. शायद आपको ना पता हो लेकिन विश्व के 70 प्रतिशत बाघ भारत में पाए जाते हैं, लेकिन लेकिन क्या हम उन्हें संरक्षण देने के साथ उनके समुचित रहवास, आहार की व्यवस्था भी कर पा रहे हैं? कदाचित नहीं, वरना क्या कारण है कि आज बाघ या अन्य जंगली पशुओं की हमारे रिहायशी इलाकों में घुसपैठ की घटनाएं बढ़ रही हैं.

कभी किसी बाघ के शहरी इलाके में आमद दर्ज कराने की खबर सुर्खियां बनती है, तो कभी किसी तेंदुए द्वारा ग्रामीण इलाकों में घुसकर मवेशी उठा ले जाने की घटना सामने आती है. आज लगता है कि इंसान और बाघ के बीच अपना-अपना इलाका कायम रखने को लेकर एक किस्म की जंग शुरू हो चुकी है, असल में सीधी-सरल बात यह है कि वन्यजीवों के आवास व भोजन का हनन हमने ही तो किया है, तो फिर ये बदला लेने परलोक तो नहीं जाएंगे, और यही हिसाब-किताब का खेल आज वन्यजीवों व इंसान के बीच चल रहा है.

वनों के नुकसान या इनमें लगने वाली आग से शाकाहारी वन्य पशुओं की संख्या में कमी आई है और यही कारण है कि बाघ जैसे मांसाहारी पशु अब जंगलों से बाहर निकल अपने भोजन की तलाश मवेशियों व मनुष्य में कर रहे हैं. यदि हमें बाघ जैसे जंगली जानवरों को संरक्षित रखने के साथ-साथ इनके प्रकोप से बचना है तो इनके भोजन की भी चिंता करनी होगी. अगर समय रहते नहीं सोचा गया तो हम खुद को ही लगातार असुरक्षित करते जाएंगे, क्योंकि बाघ को भूख लगेगी तो वह घास तो खाएगा नहीं, बल्कि हमें ही खाने आएगा. 

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