2012 की निर्भया, 2018 की निर्भया, उस दिन की निर्भया आज की निर्भया, उस मोहल्ले की निर्भया, उस गली की निर्भया, कॉलोनी की निर्भया, रोड़ की निर्भया, गाँव की निर्भया, जंगल की निर्भया, निर्भया...निर्भया...निर्भया.... हर तरफ बस निर्भया ही दिखाई देती है अब, निर्भया अब पीछा नहीं छोड़ती, देश में भी निर्भया, पड़ोसी देश में भी निर्भया, कभी आसिफा बनकर आती है तो कभी ज़ैनब, वो आती है कुछ दिन जीती है, और फिर मर जाती है, और हम हँसते है ठहाका लगाकर. " वो कौन लोग है? जो मरे-मरे से जीते है ज़िंदा लाश है वो लोग आखिर साँस कैसे लेते है? " हमने निर्भया के लिए कुछ नहीं किया, हजारों निर्भया आज भी सड़कों पर दर-दर की ठोकर खा रही है, और फिर गुम हो जाती है एक अँधेरे में हमारी आँखों से ओझल, दूर उन घने जंगलों में. मरी सिर्फ निर्भया नहीं है, मरे तो हम भी है, मरी तो हमारी आवाज़ भी है, मरी तो संवेदनाएं भी है, मरी तो इंसानियत भी है, मानवता, सहानुभूति, समानुभूति, जज्बात, एहसास सब मर गए है, बस हम चमड़े का पुतला लेकर बोझ ढो रहे है, बाकि और कुछ नहीं है. " ये बेहद शर्मनाक है कि हम अब भी चुप है बरसों से चुप थे, शायद कल भी चुप रहेंगे वो ऐसे ही बेटियों को रोदेंगे जंगलों में हम ऐसे ही ज़िंदा लाश बन जीते रहेंगे " मैं क्या लिखूं, हाथ भी आज काँप रहे है, अजीब सी पीड़ा उठती है, एक दर्द होता है बयां करते नहीं बनता, अचानक से कुछ सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते है, फ़ोन में कुछ फोटोज देखकर थर्र-थर्र काँप उठता है शरीर और फिर नींद नहीं आती देर रात तक, आँखों में बस वो चेहरा बार-बार घूम रहा है जो औंधे मुंह जंगल में कुचला सा पड़ा था, वो मासूम सा चेहरा आँखों से पल भर के लिए भी दूर नहीं जा रहा है, वो हंसती खेलती जंगल में कुछ इंसानों को चराने जाती थी और शाम होने पर चार लकड़ी से टिके हुए घर में लौट आती थी, अब वो नहीं आती, वो घर भी अब खाली है, आसिफा के माँ-बाप भी लोगों के डर और धमकियों से गाँव छोड़ कर जा चुके है, वो लकड़ियां भी गिर चुकी है, वहां अब सन्नाटा पसर कर चूका है, रौशनी वहां जाने से डरती है, अँधेरे पैर पसार कर बैठ गए है, आसिफा शायद अब भी वहां आती होगी, लेकिन वैसी नहीं जैसी वो हुआ करती थी. रोते-रोते अपनी माँ को ढूंढते हुए वो अब भी उन्ही जंगलों में भटक रही होगी, बरसों ऐसे ही भटकती रहेगी, उसकी फितरत में है भटकना, ऐसी हजारों आसिफा जंगलों में भटकती है आज भी भटक रही है, अपने शरीर पर खून के धब्बे लिए, कुचले हुए सर का बोझ ढो कर बस भटकते रहती है, भटकते रहती है..... " बिखरकर टस से मस हो गई थी वो मिट्टी में सिसकियां लेती रही खामोशी से अंधेरे को सहती रही भीड़-भरा आलम भी सुनसान था उसके लिए नब्ज़-नब्ज़ आज खाली थी खून से कतरा-कतरा मिट्टी में मिलकर सिसक रहा था " -पीयूष भालसे