इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो... इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो रुख़-ए-ज़ेबा की लताफ़त को बढाया न करो दर्द ओ आज़ार का तुम मेरे मुदावा न करो रहने दो अपनी मसीहाई का दावा न करो हुस्न के सामने इज़हार-ए-तमन्ना न करो इश्क़ इक राज़ है इस राज़ को इफ़्शा न करो अपनी महफ़िल में मुझे ग़ौर से देखा न करो मैं तमाशा हूँ मगर तुम तो तमाशा न करो सारी दुनिया तुम्हें कह देगी तुम्हीं हो क़ातिल देखो मुझ को ग़लत अंदाज़ से देखा न करो कैसे मुमकिन है के हम दोनों बिछड़ जाएँगे इतनी गहराई से हर बात को सोचा न करो तुम पे इल्ज़ाम न आ जाए सफ़र में कोई रास्ता कितना ही दुश्वार हो ठहरा न करो वो कोई शाख़ हो मिज़राब हो या दिल हो 'अज़ीज़' टूटने वाली किसी शै का भरोसा न करो. -'अज़ीज़' वारसी