आखिर क्यों हज यात्रा के दौरान शैतान को मारे जाते हैं पत्थर?

हज यात्रा (Hajj 2022) के दौरान कई नियमों का पालन किया जाता है। जी दरअसल हज यात्रा में कई रस्में पूरी करना भी अनिवार्य है और इसी में शामिल है शैतान को पत्थर मारने की रस्म। जी हाँ, इस्लामी कैलेंडर के अंतिम महीने धुल हिज्ज (Dhul Hijja 2022) की दसवीं तारीख को ईद-उल-अजहा (Eid al-Adha 2022) का उत्सव मनाया जाता है। जी हाँ और इसे बकरीद (Bakra Eid 2022) भी कहते हैं। आपको बता दें कि इस बार बकरीद का त्योहार 10 जुलाई, रविवार को मनाया जाएगा। जी हाँ और इसी दिन हज यात्रा के दौरान शैतान को पत्थर मारने की रस्म पूरी की जाती है। अब हम आपको बताते हैं इसके बारे में।

पैगंबर ने लिया अपने बेटे को कुर्बान करने का फैसला- कहा जाता है इस्लामी मान्यताओं के अनुसार, एक बार अल्लाह ने सपने में आकर पैगंबर हजरत इब्राहिम को अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करने को कहा। जी हाँ और हजरत इब्राहिम को अपना बेटा इस्माइल सबसे ज्यादा प्यारा था। ऐसे में अल्लाह के हुक्म पर पैगंबर ने अपने बेटे को ही कुर्बान करने का फैसला किया और हजरत पैगंबर की उम्र उस समय लगभग 86 साल थी और इब्राहिम उनका एक ही बेटा था।

जब शैतान ने रोका पैगंबर का रास्ता- कहते हैं जब हजरत इब्राहीम अपने बेटे की कुर्बानी देने जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें शैतान मिला। उस शैतान ने पैगंबर को अपने फर्ज से भटकाने की बहुत कोशिश की और कहा कि "इस उम्र मे अगर तुम अपने बेटे को कुर्बान करोगे तो बुढ़ापे में तुम्हारा ध्यान कौन रखेगा।" वहीँ उस दौरान शैतान की बात सुनकर भी हजरत पैगंबर ने अपना इरादा नहीं बदला और पत्थर मारकर शैतान को भगा दिया। उस समय हजरत इब्राहीम किसी भी हाल में अल्लाह का हुक्म पूरा करना चाहते थे, बेटे की कुर्बानी देते समय हाथ रुक न जाएं, इसलिए उन्होंने आंखों पर पट्टी बांध ली। जी हाँ और पैगंबर ने जैसे ही कुर्बानी के लिए हाथ चलाए और फिर आंखों पर बंधी पट्टी को हटाकर देखा तो उनके बेटा हजरत इस्माईल सही सलामत था और उसकी जगह एक दुम्बा (भेड़) पड़ा था। ये देख पैंगबर ने अल्लाह का शुक्रिया अदा किया और उसी के बाद से कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ।

सुन्नत-ए-इब्राहीमी (Sunnah-e-Ibrahimi)- आपको बता दें कि जिन 3 जगहों पर हजरत इब्राहीम ने शैतान को पत्थर मारे थे, वहीं पर तीन स्तंभ बना दिए। जी हाँ और आज भी इन्हीं तीन स्तंभों को शैतान मानकर उस पर पत्थर मारे जाते हैं। आपको बता दें कि इस रस्म को सुन्नत-ए-इब्राहीमी भी कहा जाता है और यह रस्म इस्लामिक कलेंडर के 12वां महीना धू-अल-हिज्जा की 10 से 12 हिजरी (तारीख) को की जाती है।

डिस्क्लेमर: इस संदर्भ में हम किसी प्रकार का कोई दावा नहीं करते हैं।

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