'बांग्लादेश में हिन्दू होना अपराध, धार्मिक उत्पीड़न का कोई अंत नहीं..', अत्याचार झेल चुके पीड़ितों ने सुनाई आपबीती, Video

नई दिल्ली: भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही, बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) में सामाजिक-राजनीतिक माहौल ने अक्सर सीमा पर हलचल पैदा की हैं, जिसका सीमा से सटे राज्य पश्चिम बंगाल पर काफी असर पड़ा है। 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़ों में टूटने के कारण बांग्लादेश से लाखों लोगों का विस्थापन हुआ, जिन्होंने पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, असम और मेघालय जैसे भारतीय राज्यों में शरण ली। कई लोग अपने जीवन को फिर से बनाने की उम्मीद लेकर आए, लेकिन उन्हें "शरणार्थी" का स्थायी लेबल मिला। दशकों बाद, जब बांग्लादेश में फिर से अशांति फैल रही है और उसके अल्पसंख्यक समुदाय असुरक्षा से जूझ रहे हैं, खासकर बंगाली हिंदू, जो शुरू से इस उथलपुथल में अपनी जान गंवाते आए हैं। 

कई बंगाली हिंदुओं ने मीडिया के सामने आकर अपनी दर्दभरी कहानी बयां की है, जिन्होंने अतीत में हुए अत्याचारों को अपनी आँखों से देखा है। उनके बयान इस्लामी मुल्क बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के सामने आने वाली चुनौतियों की भयावहता बताने के लिए काफी हैं। 1971 में पलायन कर भारत आए सुशील गंगोपाध्याय बांग्लादेश के नोआखली जिले में अपने समृद्ध जीवन को याद करते हुए बताते हैं कि "हमारा एक बड़ा परिवार और बहुत सारी ज़मीनें थीं। लेकिन मुक्ति संग्राम (1971) के दौरान, पाकिस्तानी सेना और रजाकारों ने हम पर हमला किया। घर जला दिए गए और कई लोगों को बेरहमी से मार दिया गया।" उनकी आवाज़ में दर्द उतर आया था। पाकिस्तान से आज़ाद हुए कुछ समय ही गुजरा था कि, हिन्दुओं की आँखों के सामने ही कथित भाईचारे की धज्जियाँ उड़ गईं और बहुसंख्यक समुदाय के लगातार हमलों ने उन्हें भारत में स्थायी शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया। 

 

आज के हालातों पर बात करते हुए सुशील कहते हैं कि, "बांग्लादेश में हाल की घटनाओं को देखकर दिल दहल जाता है। मैंने एक गर्भवती महिला के पेट पर लात मारने का दृश्य देखा; ऐसी क्रूरता अकल्पनीय है। एक भारतीय के रूप में, मैं अपने मूल भाइयों को बचाने की मांग करता हूं।" 1971 की यादें उनके जेहन में आज भी ताजा हैं। सुशिल बंदोपाध्याय कहते हैं कि, "उस समय मैं सिर्फ़ 10 या 12 साल का था। रज़ाकारों ने हमें प्रताड़ित किया, पुरुषों के शवों को नदियों में फेंक दिया और हमारी माताओं-बहनों के साथ ज़्यादती (बलात्कार) की। पाकिस्तानी सेना ने कई महिलाओं को गर्भवती कर दिया। इतने सालों बाद भी, वे निशान अभी भी मौजूद हैं।"

एक और मार्मिक कहानी बनगांव की अनिमा दास की है, जो बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के हमले के चलते वहां से पलायन कर रहीं थीं और उस दुखद समय में वो गर्भवती थी। उसी अवस्था में उन्हें अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए पलायन करना पड़ा। उन दर्दनाक दिनों को याद करते हुए अनिमा दास कहती हैं कि, "मेरा बेटा छोटा था, और मेरी बेटी मेरे गर्भ में थी। देश संघर्ष में डूबा हुआ था; घर जलाए जा रहे थे। डर के मारे मेरे ससुर ने हमें भारत भेज दिया। इसके बाद से, मैं वहाँ फिर से रहने के बारे में नहीं सोच सकती।"

सीमावर्ती क्षेत्रों के कई लोगों की भी ऐसी ही दर्दनाक कहानियां हैं। कई लोग धार्मिक उत्पीड़न के कारण अपने पैतृक घरों और यादों को पीछे छोड़कर भागे थे। जहाँ इन लोगों के दिल में अपना घर-बार, परिजनों को खोने का दर्द छिपा है, वहीं भारत द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा के लिए राहत और आभार की भावना भी है। बांग्लादेश में हिंदुओं को उनकी एकमत सलाह यही है कि ''भारत में शरण लें।'' लेकिन, ये इतना आसान भी नहीं, यहाँ का पूरा विपक्ष ही इन शरणार्थियों को नागरिकता देने वाले कानून CAA का विरोध करता है, ऐसे में बांग्लादेशी हिन्दुओं को सबसे अधिक उम्मीदें केंद्र सरकार से है। हमारे देश में गाज़ा-फिलिस्तीन-हमास के लिए तो आवाज़ें उठाई जा रहीं हैं, रैलियां, विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, सरकार पर भी दबाव डाला जा रहा है, लेकिन इन हिन्दुओं की चीखें सुनने वाला कोई नही है।  

एक और ऐसे ही शख्स हैं, हराधन बिस्वास। जिनके पिता बांग्लादेश से पलायन कर गए थे, वे बताते हैं कि बांग्लादेश में लगातार होने वाले धार्मिक उत्पीड़न ने हिंदू समुदाय में दहशत भर दी है, जिसके कारण कई लोग अपने वतन से भागकर भारत में शरण लेने को मजबूर हुए हैं। उन्होंने कैमरे के सामने कहा कि, "हिंदुओं ने ऐतिहासिक रूप से बांग्लादेश में चुनौतियों का सामना किया है, आज़ादी के समय से लेकर मुक्ति संग्राम तक और उसके बाद भी, लगातार, ये (धार्मिक उत्पीड़न) कभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। फिर भी, कई लोगों ने वहीं रहने का विकल्प चुना, लेकिन उन्हें बार-बार खतरों का सामना करना पड़ा।"  

1956 में भारत आए परेश दास की अपनी एक दर्दनाक कहानी है, वे बताते हैं कि, "मेरे दादा को मेरी आंखों के सामने मौत के घाट उतार दिया गया। हमने डर के मारे अपनी ज़मीन छोड़ दी। उन्होंने मेरे चचेरे भाई पर मेरे सामने ही हमला किया। हालाँकि अब हम भारत में शांति से रह रहे हैं, लेकिन नोआखली में रहने वाले रिश्तेदारों को अभी भी धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। अभी एक महीने पहले ही ज़मीन विवाद को लेकर मेरे चाचा की हत्या कर दी गई। मैंने उनसे कहा कि वे अपनी ज़िंदगी को संपत्ति से ज़्यादा अहमियत दें। भारत आ जाएं।" 

न्यूटाउन के पास रहने वाले रशोमोय बिस्वास ने 1971 के बाद के उत्पीड़न को याद करते हुए कहते हैं कि, "बांग्लादेश में हिंदू होना एक अपराध था। आजादी के बाद भी इसमें कोई राहत नहीं मिली। पाकिस्तानी सेना और जमात के लड़ाकों ने हमें निशाना बनाया और हमलों के लिए हिंदुओं के घरों को चिह्नित किया।" वे कहते है कि, ''मेरे परिवार ने रातें छिपकर बिताईं, अक्सर बिना भोजन के। जबकि हम अब भारत में शांति से रह रहे हैं, हमारे कई रिश्तेदार बांग्लादेश में ही रह रहे हैं। हम भारत सरकार से हस्तक्षेप करने का आग्रह करते हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वहां हिंदू बिना किसी डर के रह सकें।''  गंगोपाध्याय हो, या दास, अनिमा हो या बिस्वास, सबकी कहानियां एक जैसी ही हैं, उनसे किसी ने जाति नहीं पूछी, उनका हिन्दू होना ही काफी था। आज भी बांग्लादेश में वही हो रहा है। 

बता दें कि, बांग्लादेश में शेख हसीना के इस्तीफे के बाद से ही हिन्दुओं का नरसंहार शुरू हो चुका है। कट्टरपंथी मुस्लिम, अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय की हत्या कर रहे हैं, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं और उनके मंदिरों और संपत्तियों को नष्ट करने के साथ-साथ उन्हें लूट रहे हैं। वहीं, भारत में रहने वाले मुसलमान, वामपंथी और विपक्षी, हिन्दू नरसंहार की बात मानने से ही इंकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि, बांग्लादेश की जनता ने शेख हसीना की तानाशाही के खिलाफ आवाज़ उठाई और वहां लोकतंत्र की जीत हुई है। लेकिन, आज जो हो रहा है, वो पहली बार नहीं है। ये तो होता आया है, हिन्दुओं ने आज़ादी से पहले मोपला नरसंहार (1921) देखा है, बंगाल का डायरेक्ट एक्शन डे (1947) देखा है, आज़ादी और बंटवारे के बाद पाकिस्तान देखा है, बांग्लादेश देखा है, 1990 का कश्मीर देखा है, और अब भी देख रहे हैं। लेकिन सवाल यही है कि, क्या इन सब चीज़ों से हिन्दुओं ने कुछ सबक लिया है ?

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