हमारे देश में बेटियों की सुरक्षा को लेकर कई तरह के आंदोलन चल रहे हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, पढ़ेंगी बेटियां, तो बढ़ेंगी बेटियां जैसे आंदोलन देखकर एकबारगी बेटियों को लेकर गर्व होता है, लेकिन वहीं दूसरी ओर जब किसी बेटी की अस्मत लुटती है, तो मन मुरझा जाता है। रेवाड़ी में राष्ट्रपति सम्मान से नवाजी गई एक बेटी की अस्मत कुछ बदमाशों ने तार—तार कर दी। अब वह जिंदगी और मौत से जूझ रही है। एक बेटी जो देश का नाम रौशन कर सकती थी। एक बेटी जो भविष्य में समाज का भला कर सकती थी, अब शायद ठहर जाए उसकी जिंदगी। भारत में कहा जाता है कि बेटियां हमारा गर्व हैं। बेटी है तो कल है। लेकिन बेटियों की यह दुर्दशा देखकर दिल रोने लगता है। निर्भया से लेकर उन्नाव, मंदसौर और अब रेवाड़ी तक कितनी घटनाएं सामने हैं, जहां आगे बढ़ती बेटियों को रौंदा गया। उनकी मासूमियत को छीन लिया गया। आखिर क्यों? कहां जा रहा है हमारा समाज? क्या यह वही समाज है, जहां बेटी को घर की रौनक माना जाता है? जहां कहा जाता है कि कन्यादान न किया, तो मोक्ष नहीं मिलता? जिस देश में कन्या को देवी का दर्जा दिया जाता है, वहीं बेटी की यह दुर्दशा सोचने पर विवश कर देती है। यहां सवाल यह है कि आखिर बेटियों की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? देश की सरकार, समाज या हमारी सोच। जब गहराई से इस दिशा में सोचते हैं, तो पाते हैं कि पुरुषत्व का जो अहंकार है, वह बेटियों की इस दुर्दशा के पीछे जिम्मेदार है। हमारे समाज में शुरू से ही बेटियों को झुककर चलना सिखाया जाता है, हालांकि अब यह स्थिति बदल रही है, लेकिन अधिकतर जगहों पर आज भी यह कायम है। अगर हम चाहते हैं कि बेटी भी बिना किसी खौफ के घर से बाहर रात में जा सके, तो सरकार से ज्यादा जरूरत समाज को अपनी सोच बदलने की है। हर माता—पिता की यह जिम्मेदारी है कि वे बेटी को डरना नहीं बल्कि लड़ना सिखाएं। उसे इस काबिल बनाएं कि वह अपनी अस्मत पर हाथ डालने वालों को पटखनी दे सके, वहीं बेटों को लड़कियों की इज्जत करना सिखाएं। उन्हें बताएं कि लड़कियां भी उनके समकक्ष हैं और उन्हें भी उनकी ही तरह रहने का, कार्य करने का हक है। तभी बेटियों की यह दुर्दशा रुकेगी और वह दिन आएगा जब घर से बाहर जाती बेटी को देख न तो कोई मां डरेगी और न ही किसी बेटी को डर लगेगा। जानकारी और भी संपादकीय: क्या अल्लाह पसंद करेंगे ये कुर्बानी? नजरिया: अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो...