जालियांवाला बाग कांड से संबंधित है राजस्थान का ये कांड

मानगढ़ धाम 17 नवंबर 1913 की उस घटना का गवाह है जिसमें अंग्रेजों ने 1500 से अधिक आदिवासियों की जान ली थी। लेकिन इतिहास में इसका जिक्र नहीं किया गया। क्या इस घटना की उपेक्षा इसलिए की गई क्योंकि जिसमे शहीद हुए लोग आदिवासी थे जबकि जालियांवाला बाग में मारे गए लोग गैर-आदिवासी थे?  

जालियांवाला बाग कांड के पहले भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में गुजरात-राजस्थान की सीमा पर अवस्थित बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ में अंग्रेज सैनिकों द्वारा करीब 1500 आदिवासियों के कत्ल की रिपोर्ट्स दर्ज है, जिसे इतिहास के पन्नों में यथोचित स्थान नहीं मिल पाया है। जालियांवाला बाग कांड को अंगेजों ने 13 अप्रैल, 1919 को इस वारदात को पूरा किया था। जिसके तकरीबन 6 वर्ष पहले 17 नवंबर, 1913 को राजस्थान-गुजरात सीमा पर स्थित बांसवाड़ा जिले में अंग्रेजों ने करीब 1500 भील आदिवासियों को मौत के घाट उतारा जा चुका था। जंहा इस बात का पता चला है कि परंतु आदिवासियाें की इस शहादत को इतिहासकारों ने इतना सम्मान नहीं दिया। मसलन, राजस्थान के इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे महज “भीलों का उत्पात” की संज्ञा प्रदान की है।  

दक्षिणी राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के बागड़ की मानगढ़ पहाड़ी पर आदिवासी अस्मिता और उनके ऐतिहासिक बलिदान का प्रतिक बन चुका है। स्थानीय लोग इसे “मानगढ़ धाम” के नाम से अपनी पहचान बनाई। जंहा यह भी कहा जा रहा है कि इस स्थान को राष्ट्रीय धरोहर बनाने का अनुरोध बार बार किया जाता रहा। यहां तक कि लोकसभा में भी इसके लिए आवाज उठाई गई परंतु नतीजा जीरो रहा।

मिली जानकारी के अनुसार मानगढ़ गवाह है भील आदिवासियों के अदम्य साहस और अटूट एकता का प्रतिक है, जिसकी वजह से अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पड़े थे। हम बता दें कि यह एकजुटता गोविंद गुरू के नेतृत्व में बनी थी, जो स्वयं लंबाडा (बंजारा समाज) के थे। जिसके उपरांत गोविंद गुरू ने अपना जीवन भील समुदाय के लिए समर्पित कर दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उनके नेतृत्व में हुए इस ऐतिहासिक विद्रोह के निशाने पर केवल अंग्रेज कभी नहीं थी बल्कि वे स्थानीय रजवाड़े भी थे जिनके जुल्मों-सितम से भील समुदाय के लोग कराह रहे थे। जंहा आगे इस बात का भी जिक्र होता है कि भील और लंबाड़ा समुदाय के लोगों की बहादुरी के कारण ही उन्हें रजवाड़ों और अंग्रेजों ने भी अपनी सेना का हिस्सा थे। पूंजा भील जिसे महाराणा प्रताप अपना दाहिना हाथ कहते थे, उनकी छवि तो मेवाड़ के राजचिह्न तक में दर्ज है। 

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