भूख... आँख खुल मेरी गई हो गया मैं फिर ज़िन्दा पेट के अन्धेरो से ज़हन के धुन्धलको तक एक साँप के जैसा रेंगता खयाल आया आज तीसरा दिन है आज तीसरा दिन है एक अजीब खामोशी से भरा हुआ कमरा कैसा खाली-खाली है मेज़ जगह पर रखी है कुर्सी जगह पर रखी है फर्श जगह पर रखी है अपनी जगह पर ये छत अपनी जगह दीवारे मुझसे बेताल्लुक सब, सब मेरे तमाशाई है सामने की खिड़्की से तीज़ धूप की किरने आ रही है बिस्तर पर चुभ रही है चेहरे में इस कदर नुकीली है जैसे रिश्तेदारो के तंज़ मेरी गुर्बत पर आँख खुल गई मेरी आज खोखला हूँ मै सिर्फ खोल बाकी है आज मेरे बिस्तर पर लेटा है मेरा ढाँचा अपनी मुर्दा आँखो से देखता है कमरे को एक सर्द सन्नाटा आज तीसरा दिन है आज तीसरा दिन है दोपहर की गर्मी में बेरादा कदमों से एक सड़क पर चलता हूँ तंग सी सड़क पर है दौनो सिम पर दुकाने खाली-खाली आँखो से हर दुकान का तख्ता सिर्फ देख सकता हूँ अब पढ़ नहीं जाता लोग आते-जाते है पास से गुज़रते है सब है जैसे बेचेहरा दूर की सदाए है आ रही है दूर. -जावेद अख़्तर