माली में ईसाईयों को वही धमकी, जो कभी कश्मीरी हिन्दुओं को मिली थी, मानवाधिकार खामोश

बामाको: माली में इस्लामी आतंकवादी समूहों ने ईसाई नागरिकों को खतरनाक अल्टीमेटम दिया है, जिसमें उन्हें इस्लाम अपनाने, आतंकवाद के लिए धन देने, या अपने घर छोड़ने के लिए कहा गया है। और जो लोग इन तीनों विकल्पों को नहीं मानते, उन्हें आतंकियों की गोली का शिकार होना पड़ता है। यह स्थिति इस्लामी आतंकवाद की जड़ों में एक नई और गंभीर चुनौती पेश करती है, जो अब ईसाइयों के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रही है।

 

‘ओपन डोर्स’ संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, जमात नुसरत अल-इस्लाम वाल मुस्लिमीन (JNIM) नामक आतंकवादी समूह ने मध्य माली के ईसाई पादरियों को धमकाते हुए कहा कि उन्हें माली की सेना के खिलाफ लड़ाई में आतंकियों की मदद करनी होगी। इस तरह की धमकियों का सामना सिर्फ ईसाई ही नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र में रहने वाले मुसलमानों और अन्य जनजातियों को भी करना पड़ रहा है, जहां इन आतंकियों द्वारा 'ज़कात' वसूल किया जा रहा है। हालाँकि, मुसलमान तो पहले से ही ज़कात देते रहे हैं, जो इस्लाम के अनुसार उन पर फर्ज है। लेकिन, इस ज़कात का पैसा किसी पुण्य के काम में नहीं, बल्कि आतंकवादी कार्यों में लग रहा है, लोगों की जान लेने में इस्तेमाल हो रहा है। 

इस्लामी आतंकियों ने 2012 से माली में हमले शुरू किए थे, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने उत्तरी माली का एक बड़ा हिस्सा अपने नियंत्रण में ले लिया। उन्होंने यहाँ शरिया कानून लागू किया और चर्चों तथा अन्य ईसाई संस्थानों को तबाह कर दिया। वर्तमान में, माली में 71 लाख से अधिक लोग मानवीय सहायता की आवश्यकता में हैं, और 40 लाख लोग अपने घर छोड़कर भाग चुके हैं। यह स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि माली में आतंकवादी संगठन जिहादियों का एक नेटवर्क स्थापित कर चुके हैं, जिसमें अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट (ISIS) जैसे आतंकी समूह शामिल हैं। इन समूहों का उद्देश्य ईसाई और गैर-मुस्लिम आबादी को निशाना बनाना है, जो इस्लाम को नहीं मानते हैं।

 

इसमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है: क्या ये घटनाएं उस खतरे का संकेत हैं जो किसी समय भारत के कश्मीरी हिंदुओं को भी सामना करना पड़ा था, जब उन्हें इस्लाम अपनाने या देश छोड़ने की धमकी दी गई थी? हालाँकि, भारत में कुछ राजनेता इसे केवल भाजपा और RSS की मनगढ़ंत कहानी मानते हैं, जबकि माली के गैर-मुस्लिम लोग आज भुगत रहे हैं। कुछ साल पहले, अफगानिस्तान में भी तालिबान के अधीन हिंदू और सिख समुदायों को इसी प्रकार के विकल्प दिए गए थे। यदि वे धर्मान्तरित नहीं हुए या भागने में असमर्थ रहे, तो उन्हें मार दिया गया। क्या भारत के राजनेता अब भी वोट बैंक की राजनीति में इस इस्लामी कट्टरपंथ को नजरअंदाज करेंगे?

पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहां गैर-मुस्लिम बच्चियों को अगवा किया जाता है और उन्हें जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया जाता है और फिर किसी अधेड़ मौलवी से उनका जबरन निकाह करवा दिया जाता है। क्या ये सभी घटनाएँ मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन नहीं हैं ? क्या अब भी समय नहीं आया है कि पूरी दुनिया इस्लामी कट्टरपंथ पर खुलकर चर्चा करे? समाधान निकालने के लिए चर्चा अनिवार्य है, वरना यह समस्या केवल बढ़ती जाएगी।

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