पेरिस में दुनिया धरती को बचाने और सहेजने के लिए एकत्रित हुई है। वह पेरिस जो कुछ समय पहले आतंक के धमाकों से दहल उठा था वहां अब जीवन को सहेजने को लेकर चर्चा हो रही है। जी हां, ग्लोबल वार्मिंग और लगातार हो रहे पर्यावरणीय बदलावों ने संयुक्त राष्ट्र को चिंता में डाल रखा है। यह चिंता जीवन के लिए चिता न बन जाए इसके पहले विकासशील और विकसित राष्ट्र एक मंच पर आकर पर्यावरण संरक्षण को लेकर मंथन करने में लग गए हैं। हालांकि इसमें भी वही असर देखने को मिला है। इसमें भी विकसित देश विकासशील देशों को पर्यावरण में असंतुलन का हवाला देते हुए खुद को विकास की रफ्तार को कुछ धीमा करने की ताकीद कर रहे हैं ऐसे में भारत को भी कहा गया है कि वह विकासशील देश के दायरे से बाहर निकलकर पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दे। हालांकि भारत भी इस बात से सहमत है कि वैश्विकरूप से पर्यावरण को बचाना सभी के लिए जरूरी है लेकिन भारत अपने विकास के प्रोजेक्ट्स को रोक नहीं सकता। हालांकि यह बात भी साफ है कि जिस तरह से तेज़ी से ग्लैशियर पिघल रहे हैं। उससे एक बड़ा खतरा सामने आने लगा है। अब तो मौसमी चक्र भी बदलने लगा है। सर्द मौसम का अहसास अमूमन नवरात्रि से ही होने लगता है लेकिन अब तो सर्द मौसम चंद माह का ही होने लगा है। ये हालात केवल भारत के नहीं हैं समूचे विश्व में तेजी से तापमान बढ़ा है। दरअसल ग्रीन हाउस गैसों को उत्सर्जन का असर धरती के पर्यावरण पर पड़ रहा है। सूर्य के हानिकारक विकीरण से बचाने वाली ओज़ोन परत सिमट रही है और सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर अधिक मात्रा में पहुंचने लगी हैं। हालात ये हैं कि मुंबई, कोलकाता, वेनिस समेत दुनिया के कई देशों के शहरों के जल में डूब जाने का अंदेशा है। इतना ही नहीं जिस कदर जंगल कट रहे हैं उससे अन्य पशु - पक्षियों की अन्य प्रजातियों पर भी असर हुआ है। खरमौर और गरूड़ पक्षी तो अब दिखाई ही नहीं देते। कई बार बाघ, चीता अन्य जंगली पशु शहरों तक आ जाते हैं। भारत को ही जंगलों को विकसित करने के लिए तकरीबन 14 लाख करोड़ रूपए की आवश्यकता है। जंगल खेतों में बदल रहे हैं और खेत सीमेंट - कांक्रीट की ईमारतों में। क्या आपने सोचा है आपके आसपास मौजूद उद्यानों में ठीक से पौधों को विकसित किया जाता है या नहीं अधिकांश पौधे रोपने के बाद ही सूखने लगते हैं। ऐसे में उनके पनपने की संभावनाऐं समाप्त हो जाती हैं। मानवीय घटनाक्रमों के चलते ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव तो बढ़ ही रहा है लेकिन पर्वतीय जीवन भी सुरक्षित नहीं है। हिमालयीय क्षेत्र में केदारनाथ हादसे जैसी त्रासदी का कारण भी मानव की पर्यावरणीय भूल ही रही है। अब तो पहाड़ों और टेकरियों से चट्टानें खिसकने लगती हैं भूस्खलन के कारण पर्वत प्रभावित हो रहे हैं। इनका अस्तित्व खतरे में है। दरअसल ऊंचे पर्वतों पर मानव पहुंचने के लिए पक्की सड़क, हेलिपेड आदि बना रहा है ऐसे में वह अपने लिए सुगम रास्ता बना लेता है मगर उसके क्रियाकलाप इतनी भारी मात्रा में होते हैं कि पहाड़ों पर कृत्रिम दबाव पड़ता है और चट्टानें खिसकने लगती हैं दूसरी ओर हिमालयी क्षेत्र में हाईड्रो पाॅवर प्रोजेक्ट्स संचालित किए जाते हैं। जिसके चलते यहां पर बड़े पैमाने पर अप्राकृतिक तरीके से जल राशि का संग्रहण होता है। ऐसे में पहाड़ों पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक होता है। रासायनिक खाद के उपयोग से खेतों में कीटों को अपना ग्रास बनाने वाले पक्षी प्रभावित होते हैं और पर्यावरणीय चक्र पर असर होता है। बढ़ते नगरीकरण और बड़ी सड़कों के निर्माण के लिए परिपक्व पौधों को काटा जाना प्रकृति के लिए एक बड़ा नुकसान साबित होता है। इन सभी के बाद मानव द्वारा वाहनों, और अन्य साधनों में प्रयुक्त होने वाले ईंधन और अन्य तत्वों के प्रयोग से कार्बनिक यौगिकों का निर्माण बड़े पैमाने पर होता है ऐसे में पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो जाता है।