विकसित देशों ने किया पर्यावरण का सत्यानाश और सुधारें गरीब देश..! भारत ने लगाई लताड़

बाकू: हाल ही में अजरबैजान की राजधानी बाकू में हुए COP-29 सम्मेलन में एक समझौता हुआ, जिसमें अमीर और विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए गरीब और विकासशील देशों को 2035 तक हर साल 300 बिलियन डॉलर देने पर सहमति जताई। यह धनराशि पर्यावरणीय संकट को कम करने और स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश के लिए दी जाएगी। हालांकि, भारत ने इस समझौते पर नाराजगी जताते हुए इसे अस्वीकार कर दिया।  

पहले अमीर देशों ने हर साल 100 बिलियन डॉलर देने का वादा किया था, लेकिन इस बार यह आंकड़ा बढ़ाकर 300 बिलियन डॉलर कर दिया गया है। हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह धनराशि कब से देना शुरू होगी। अमीर देशों का दावा है कि उन्होंने 2022 तक 100 बिलियन डॉलर देने का लक्ष्य पूरा कर लिया है, लेकिन भारत और अन्य विकासशील देश इस दावे से सहमत नहीं हैं। यह राशि विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा के प्रोजेक्ट और कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद के लिए दी जाएगी। लेकिन यह तभी संभव होगा जब ये देश अपने कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को पूरा करेंगे।  

भारत के प्रतिनिधि चांदनी रैना ने इस समझौते को अपर्याप्त बताते हुए इसे खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि 300 बिलियन डॉलर जैसी मामूली राशि से जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। भारत ने यह भी कहा कि समझौता जल्दबाजी में हुआ और बाकू में भारतीय प्रतिनिधियों को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया।  

भारत का समर्थन नाइजीरिया और कई छोटे द्वीपीय देशों ने किया। नाइजीरिया ने इस समझौते को "मजाक" करार दिया। इन देशों ने कहा कि यह समझौता अमीर देशों की जिम्मेदारी से बचने का तरीका है, जबकि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े जिम्मेदार हैं।  भारत समेत कई देशों ने तर्क दिया कि विकसित देशों ने अपने औद्योगिक विकास के दौरान बड़े पैमाने पर कोयला, तेल और गैस का इस्तेमाल किया और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया। अब जब ये देश आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, तो विकासशील देशों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे जीवाश्म ईंधन का उपयोग न करें।  

इन देशों का कहना है कि हरित ऊर्जा की ओर बढ़ना महंगा और समय लेने वाला है, और विकासशील देश अभी पूरी तरह से इस बदलाव के लिए तैयार नहीं हैं। अमीर देश, धनराशि देकर, इन देशों से उनके ऊर्जा संसाधनों का अधिकार छीनने और अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। इस समझौते को लेकर पश्चिमी देशों ने इसे "क्रांतिकारी" बताया है, लेकिन विकासशील देशों ने इसे "आधा-अधूरा" और "बेईमानी" करार दिया है।

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