पुण्यतिथि स्पेशल: राष्ट्रीय एकता को सबसे ऊपर रखने वाले नेता थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी

श्यामा प्रसाद मुखर्जी, एक ऐसा नाम जिसके बारे में उनके विरोधी भी आलोचना करने से कतराते थे. राष्ट्रीय एकता को सबसे ऊपर रखने की अगर बात की जाए तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम उन नेताओं में ऊपर आता है. 6 जुलाई 1901 को जन्मे मुखर्जी का जन्म एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था, मुखर्जी साहब के पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल में एक जाने बुद्धिजीवी के रूप में प्रख्यात थे. 

एक  शिक्षाविद् के रूप में शयाम प्रसाद मुखर्जी ने कलकत्ता के विश्वविद्यालय से स्नातक की पढाई की है, वहीं उसके बाद 1923 में मुखर्जी सेनेट के सदस्य बने. उसके बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1924 का एक ऐसा दौर था जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी, वहीं उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता का साथ उनसे छूट गया. 

1924 में ही उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में अपना नामांकन कराया. वहीं उसके 2 साल बाद वो इंग्लैंड रवाना हो गए, जहाँ लिंकन्स इन से उन्होंने 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की. मात्र 33 वर्ष की उम्र में अपनी पढ़ाई और विचारों के दम पर कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने, यहाँ देश में अब तक किसी भी विश्वविद्यालय का सब युवा कुलपति होने का रिकॉर्ड है. 

वहीं अपनी पढ़ाई के साथ ही एक समय बाद उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया. वीर सावरकर से प्रेरित श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपनी अलग ही राजनीतिक सोच में देश के युवाओं में एक अलग जगह बनाई. श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली केबिनेट में मिनिस्टर थे वहीं इसके बाद उन्होंने जनसंघ की स्थापना की जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बना. 

जन संघ की स्थापना: श्यामा प्रसाद मुखर्जी पंडित जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट में  उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री थे. नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के साथ 6 अप्रेल 1950 को हुआ समझौता, शायद श्यामा प्रसाद मुखर्जी को रास नहीं आया और उन्होंने मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया. उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 25 साल बीत चके थे, और उसके सर-संघचालक गुरु गोलवलकर जी थे. 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सर-संघचालक गुरु गोलवलकर से सलाह लेकर 21 अक्टूबर 1951 को जनसंघ की स्थापना की थी. वहीं स्थापना के बाद 1950 -1951 में आम चुनाव के बाद से ही राष्ट्रीय जन संघ ने चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे थे और संघ के 3 सांसद चुने गए थे, जिसमें एक खुद मुखर्जी भी थे. उसके बाद ही उन्होंने 32 लोकसभा और 10 राज्यसभा सांसदों के सहयोग से नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया.

कश्मीर के मुद्दे पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लगातार अपनी लड़ाई जारी रखी. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के देश के बंटवारे को लेकर अलग विचार थे वहीं कश्मीर के विलय के भी वो दृढ समर्थक थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 को लेकर अपना विरोध भी दर्ज कराया था और इसे हटाने के लिए मुहीम छेड़ी. वहीं इसके बाद 11 मई 1953 को कश्मीर के कानूनों को किनारे कर परमिट सिस्टम का उलंघन किया और 23 जून यानी आज ही के दिन 1953 को विषम परिस्थितियों में उनका स्वर्गवास हो गया. 

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