वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा... वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ-सा अभी तक दिन पे है ठहरा हुआ-सा उदासी एक लम्हे पर गिरी थी सदी का बोझ है पसरा हुआ-सा उधर खिड़की में था मायूस चेहरा इधर भी चाँद है कुतरा हुआ-सा करे है शोर यूँ सीने में ये दिल समूचा ज़िस्म है बहरा हुआ-सा ये किन नज़रों से मुझको देखते हो रहूँ हरदम सजा-सँवरा हुआ-सा सुखाने ज़ुल्फ़ वो आए हैं छत पर है सूरज आज फिर सिहरा हुआ-सा लिखा उस नाम का पहला ही अक्षर मुकम्मल पेज है चेहरा हुआ-सा नहीं हो तुम तो ये हर पल है कैसा निगाहों में धुआँ उतरा हुआ-सा न छेड़ो फिर से इसको मुस्कुरा कर वही क़िस्सा मेरा बिसरा हुआ-सा. -गौतम राजरिशी