'समलैंगिक विवाहों को मिले कानूनी मान्यता..', याचिका पर क्या बोला सुप्रीम कोर्ट?

नई दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 9 जनवरी 2025 को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के संबंध में दायर समीक्षा याचिकाओं पर विचार करने से इनकार कर दिया। इन याचिकाओं में न्यायालय से उसके अक्टूबर 2023 के फैसले की पुनर्समीक्षा की मांग की गई थी।  

न्यायमूर्ति बीआर गवई, सूर्यकांत, बीवी नागरत्ना, पीएस नरसिम्हा और दीपांकर दत्ता की पीठ ने चैंबर में विचार-विमर्श के बाद समीक्षा याचिकाओं को खारिज कर दिया। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि पुराने फैसले में कोई त्रुटि नहीं पाई गई। "हमने रिकॉर्ड का अध्ययन किया और पाया कि निर्णय कानून के अनुसार था। इस पर हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं है।"  

17 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा था कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देना विधायिका का विषय है। हालांकि, अदालत ने यह भी माना था कि समलैंगिक जोड़ों को बिना हिंसा, धमकी, या जबरदस्ती के साथ रहने का अधिकार है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एसके कौल ने नागरिक संघों को मान्यता देने का समर्थन किया था, लेकिन बेंच के अन्य तीन न्यायाधीश इससे सहमत नहीं थे। इसके चलते विवाह को कानूनी मान्यता देने का मामला विधायिका के पाले में छोड़ दिया गया।  

अक्टूबर के फैसले के बाद कई समलैंगिक जोड़ों और सामाजिक संगठनों ने समीक्षा याचिकाएं दायर कीं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने भले ही भेदभाव को स्वीकार किया हो, लेकिन समलैंगिक जोड़ों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उन्होंने यह भी कहा कि अदालत ने अपने फैसले में विरोधाभास दिखाया है। एक तरफ यह माना गया कि सरकार के रवैये से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, लेकिन दूसरी तरफ इसे रोकने के लिए कोई निर्देश जारी नहीं किया।  

जुलाई 2024 में जस्टिस संजीव खन्ना के सुनवाई से अलग होने के बाद नई पीठ का गठन किया गया। इस नई पीठ में जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल थे, जो मूल अक्टूबर 2023 की बेंच के एकमात्र सदस्य थे। बाकी सदस्य सेवानिवृत्त हो चुके थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अक्टूबर 2023 के फैसले में केंद्र सरकार को एक समिति बनाने का निर्देश दिया था, जो समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। हालांकि, अदालत ने विवाह को औपचारिक मान्यता देने से परहेज किया।  

समीक्षा याचिकाओं के खारिज होने के बाद अब यह मामला पूरी तरह से विधायिका पर निर्भर करता है। समलैंगिक समुदाय और उनके अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों को उम्मीद है कि आने वाले समय में संसद इस विषय पर ठोस कदम उठाएगी।

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