आप सभी इस बात से वाकिफ ही होंगे कि आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या के पंद्रह दिन पितृपक्ष कहलाता है. ऐसे में इन 15 दिनों में पितरों का श्राद्ध करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. वहीं इस बार 13 सितंबर से 28 सितंबर तक पितृपक्ष रहने वाला है और पितृपक्ष के लिए गया की भूमि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. कहते हैं गया में श्राद्ध से जीव की सद्गति होती है लेकिन भागवत् माहात्म्य कथा के पात्र धुंधकारी का गया श्राद्ध उसके भाई गोकर्ण ने विधिवत् किया फिर भी उसकी प्रेत योनि न छूटी और इसका कारण शौनक जी ने व्यास जी से पूछा तो उन्होंने बताया- 'गया' श्राद्ध का आध्यात्मिक मर्म समझ लोगे तो बात समझ में आयेगी, वहीं उसके बाद उन्होंने गया श्राद्ध की एक कथा सुनाई जो आज हम आपको सुनाने जा रहे है. ऐसे हुआ गयासुर का अंत - 'एक असुर था, गयासुर. उसने तप शक्ति से सारी विभूतियां पा लीं. तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी आये, वर मांगने को कहा. असुर बोला 'मैं आपसे क्या वर मांगू मुझे क्या कमी है?' आप चाहें तो मुझसे कुछ मांग लें.'ब्रह्माजी ने सोचा यह अहंकारी असुर किसी के मारे न मरेगा. शायद यज्ञ के प्रभाव से मर जाय. उन्होंने यज्ञ के लिए उसका शरीर माँग लिया. उसकी छाती पर सौ वर्ष तक यज्ञ किया गया. पर वह मरा नहीं, वह उठने को हुआ. ब्रह्माजी ने भगवान का स्मरण किया. उन्होंने प्रकट होकर गयासुर की छाती पर दोनों चरण रखे. चरण छाप पड़ने से असुर नष्ट हुआ. उसने मरते समय वर मांगा. यह यज्ञ क्षेत्र में विष्णुपाद पर जिसका श्राद्ध हो उसे सद्गति मिले. भगवान ने गयासुर की इस मंगल कामना का आदर किया. उसे भी सद्गति दी तथा वरदान भी प्रदान किया. कथा सुनाकर व्यास जी बोले, हे भ्रद! 'गय' प्राणों को कहते हैं. प्राण अपने सहयोगी अनुचरों, शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों के सहयोग से कुछ भी अर्जित कर सकता है. अभिमानी प्राणी ही गया सुर है वह भूल जाता है कि उसे किसी उद्देश्य विशेष के लिए बनाया गया है. बनाने वाले ने अपने लिए दिशा प्राप्त करने की अपेक्षा उसी से वर माँगने की अहंकार भरी बात करता है. यह अहंकारी जीव सामान्य देव वृत्तियों के काबू में नहीं आता. उन्हें सताता है. ब्रह्माजी ने ठीक ही सोचा कि लंबे समय तक यज्ञ का परमार्थ का संस्कार मिले तो शायद यह अभिमान समाप्त हो जाय. इसी दृष्टि से उन्होंने उससे उनका शरीर यज्ञ के लिए मांग लिया.सौ वर्ष मनुष्य की आयु है. पूरे समय यज्ञ हुआ, पर वह केवल द्रव्य से हुआ. अभिमान के भाव से किया गया द्रव्य यज्ञ अधूरा यज्ञ होता है, राजसिक यज्ञ होता है. सात्विक यज्ञ जब तक वह न बने, उसका वह प्रभाव नहीं होता जैसा चाहिए. ब्रह्माजी की समझ में भूल आयी. उन्होंने भगवान का आह्वान किया. गयासुर के हृदय पर भगवद् चरण पड़े, अर्थात् प्रभु के प्रति श्रद्धा उपजी तो जीवाभिमान गल गया. मुक्ति हो गयी.गयासुर ने ब्रह्मा को शरीर दान कर दिया था. शरीर को पिण्ड भी कहा गया है. 'जो ब्रह्म में सो पिण्ड में इस उक्ति में पिण्ड का अर्थ मनुष्य देह ही होता है. गयासुर का शरीर दान, पिण्ड दान कहला सकता है, परन्तु उससे श्रद्धा तो थी नहीं इसीलिए वह श्राद्ध नहीं बना और जब तक श्रद्धा नहीं जुड़ी तब तक मुक्ति नहीं हुई. व्यास जी बोले 'शौनक जी गया श्राद्ध किसी भी तीर्थ में किया जा सकता है जहां यज्ञीय चेतना का जीवन्त प्रयोग होता तो. गयासुर को भगवान ने जो वरदान दिया है उसकी लौकिक अर्थों में लकीर पीटने से उद्देश्य पूरा नहीं होता. आध्यात्मिक संदर्भ में किया गया प्रयास अवश्य सफल होता है. परन्तु परमात्मा के प्रति श्रद्धा भाव के बिना न यज्ञ होता है न श्राद्ध. यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए. इन खास व्यंजनों के बिना अधूरा है जैन धर्म में रोट तीज का त्यौहार Muharram 2019 : इस्लामी नए साल का चाँद दिखते ही हाथों की चूड़ियां तोड़ देती हैं शिया महिलाएं.. दधीच जंयती पर जरूर जानिए महान दानी महर्षि दधीचि की दान कथा