बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ एकजुट हुए हिन्दू-सिख-बौद्ध और ईसाई..! निकाली विशाल रैली, Video

ढाका: बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपंथ के बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ हिंदू, ईसाई, बौद्ध, और सिख अल्पसंख्यक समुदाय एकजुट होकर सड़कों पर उतर आए हैं। ढाका में शुक्रवार को अल्पसंख्यकों के एक गठबंधन ने एक विशाल रैली का आयोजन किया, जिसमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया। इस रैली का उद्देश्य सरकार से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए आठ सूत्री मांगों को स्वीकार करवाना था। यह प्रदर्शन ढाका के केंद्रीय शहीद मीनार में हुआ, जहां देश के विभिन्न हिस्सों से लोग इकट्ठा हुए, जिसमें मंदिरों के नेता, छात्र, और जागरूक नागरिक शामिल थे।

 

रैली का आयोजन करने वाले बांग्लादेश संयुक्त अल्पसंख्यक गठबंधन ने बताया कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय 5 अगस्त से लगातार इस्लामिक जिहादियों के अत्याचारों का सामना कर रहा है। इन अत्याचारों में भीड़ द्वारा आगजनी, लूटपाट, हत्या, बलात्कार, और जबरन कब्जे की घटनाएं शामिल हैं। खासकर हिंदू, ईसाई और बौद्ध समुदायों को निशाना बनाकर इन अत्याचारों को अंजाम दिया जा रहा है। यह घटनाएं तब तेज हुईं जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को छात्रों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों के बाद सत्ता से हटाया गया। इसके बाद, कथित  शांति के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ, जिसके बाद अल्पसंख्यकों पर जिहादियों के हिंसात्मक हमले बढ़ने लगे। अल्पसंख्यक समूहों का कहना है कि इस राजनीतिक बदलाव के बाद हिंदुओं को खास तौर पर निशाना बनाया गया, लेकिन अंतरिम सरकार ने इन हमलों को धार्मिक न मानकर राजनीतिक करार दिया है।

इस संदर्भ में अल्पसंख्यक समुदायों की आठ सूत्री मांगें सरकार के सामने रखी गई हैं, जिनमें एक तटस्थ जांच आयोग का गठन और एक "फास्ट-ट्रैक ट्रायल ट्रिब्यूनल" की स्थापना की बात शामिल है। इसके जरिए अपराधियों को शीघ्र और कठोर सजा दिलाने की मांग की जा रही है। साथ ही, पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास देने की भी मांग उठाई गई है। इन मांगों में एक "अल्पसंख्यक संरक्षण अधिनियम" लागू करने, "अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय" बनाने और विभिन्न धार्मिक ट्रस्टों को फाउंडेशन में अपग्रेड करने की बातें शामिल हैं। साथ ही, सार्वजनिक और निजी विश्वविद्यालयों में पूजा स्थलों का निर्माण और प्रमुख धार्मिक त्योहारों के लिए सार्वजनिक छुट्टियों की घोषणा करने की मांग भी की गई है।

 

बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदायों का यह आंदोलन इस बात का संकेत है कि वहां इस्लामी कट्टरपंथियों के जिहादी अत्याचारों के चलते उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा रहा है। हिंदू, ईसाई, बौद्ध, और सिख समुदायों के लोग इन अत्याचारों के शिकार हो रहे हैं और उनके खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष कर रहे हैं। यह स्थिति भारत के संदर्भ में चिंतन योग्य है, जहां ये चारों समुदाय एक सेक्युलर देश में रहते हुए भी आपस में मनमुटाव का सामना करते हैं, खासकर धार्मिक मुद्दों पर। यहाँ तक कि भारत में तो हिन्दू भी एकजुट नहीं हैं, बांग्लादेश में सड़कों पर उतरे हिन्दुओं में कोई ब्राह्मण-दलित नहीं हैं, क्योंकि ना तो वहां कोई जातिवाद फैलाने वाला नेता है और ना ही वहां किसी को दलितों के, OBC के, ठाकुरों के वोट चाहिए, सरकार तो वहां एक समुदाय के वोट से ही बन जाएगी। भारत में स्थिति उलट है, यहाँ लोगों को जातियों में तोड़कर वास्तविकता से दूर किया जा रहा है कि वो चाहे, बनिया हो या आदिवासी, सिख हो या ईसाई, बौद्ध हो या जैन, कट्टरपंथियों की नज़रों में वो सिर्फ 'काफिर' ही है। ये बात बांग्लादेश में स्पष्ट हो चुकी है। 

भारत में, जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं और देश को सेक्युलर माना जाता है, क्या यहाँ के लोगों को अपने पड़ोसी मुल्क की घटनाओं से कुछ सीखना चाहिए? क्या उन्हें बांग्लादेश में हो रही घटनाओं से यह नहीं समझना चाहिए कि आतंकवाद और कट्टरवाद के खिलाफ एकजुटता कितना महत्वपूर्ण है? या फिर भारत में हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपाकर यह इंतजार करेंगे कि जब हमारी बारी आएगी, तब हम जागेंगे? बांग्लादेश के हालात इस ओर इशारा कर रहे हैं कि जब इस्लामी कट्टरपंथियों की ताकत बढ़ती है, तो अल्पसंख्यकों को सबसे पहले निशाना बनाया जाता है। क्या भारत के लोग इसे समय रहते समझेंगे, या फिर वही गलती करेंगे जो उनके पड़ोसी देश के लोग कर रहे हैं?

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