बांस की गठरियों से लेकर Olympic के पदक तक, मुश्किलों से भरा रहा मीराबाई चानू का सफर

भारत ने 21 साल के लंबे अंतराल के बाद ओलंपिक्स के वेटलिफ्टिंग में पहला मेडल जीत लिया है। देश के लिए ये मेडल मणिपुर की बेटी मीराबाई चानू ने जीता है। भारत की स्टार भारोत्तोलक साएखोम मीराबाई चानू ने शनिवार को Tokyo Olympics में 49 किलोग्राम भारवर्ग स्पर्धा में भारत को पहला रजत पदक दिला दिया है। इसके साथ ही वह भारत की तरफ से टोक्यो ओलंपिक में पदक जीतने वाली भारत की पहली खिलाड़ी बन गई हैं। उन्होंने 49 किग्रा भारवर्ग में 87 किलो, जबकि क्लीन एंड जर्क में 115 किलोग्राम का भार उठाया। इस प्रकार उन्होंने कुल मिलाकर 202 किलोग्राम भार उठाया। हालांकि, आज कामयाबी की बुलंदियों पर बैठीं मीराबाई ने अपनी मां के साथ उन्होंने बचपन में काफी संघर्ष किया। ऐसा नहीं था कि उन्हें शुरू से ही खेल में जाना था। लेकिन मणिपुर की ही महिला वेटलिफ्टर कुंजुरानी देवी को इन्होंने खूब फॉलो किया जो उस समय एथेंस ओलंपिक में खेलने गई थीं। इसके बाद मीरा के जेहन में खेलों के प्रति रुझान जगी, जिसका परिणाम आज पूरी दुनिया ने देखा।

मीराबाई चानू की इस जीत में उनके संघर्ष की कहानी छिपी हुई है। 8 अगस्त 1994 को मणिपुर के एक छोटे से गांव में जन्मीं मीराबाई बचपन से काफी हुनरमंद थीं।राजधानी इंफाल से तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद इनका गांव आधुनिक सुख सुविधाओं से वंचित था। मीराबाई अपने छह भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं। हालांकि मीरा के पिता कभी नहीं चाहते थे कि उनकी पुत्री खेलों में करियर बनाए। किन्तु मां का उन्हें सहयोग अवश्य मिलता था। आसपास का वातावरण वैसा नहीं था कि लोग बेटियों को खेलों में आगे बढ़ाएं। किन्तु मीरा की जिद के सामने मां-बाप ने तो हार मानी ही, समाज भी कुछ नहीं बोल पाया और मीरा हर बाधा से लड़कर आगे बढ़ती रहीं। मीरा ने जब वेटलिफ्टिंग के लिए अभ्यास शुरू किया, तब उनके पास कोई सुविधा नहीं थी। वे बांस की गठरियों के साथ अभ्यास करती थीं। वह बचपन से ही बांस के गठरियां सर पर लादकर मीलों तक चलती थीं। दरअसल, वह मां के साथ जंगल में लकड़ियां लाने जाते थीं।

इसके बाद उन्होंने अपने गांव से 50-60 किमी दूर ट्रेनिंग के लिए जाना शुरू किया। किन्तु उन्हें जैसी डाइट उन्हें चाहिए थी, वैसी नहीं मिल पा रही थी। वेटलिफ्टिंग के लिए व्यक्ति को अपने शरीर को बेहद मजबूत रखना पड़ता है। ऐसे में हर दिन दूध और चिकन की खुराक आवश्यक होती है। मगर मीराबाई एक मध्यम परिवार से आती थीं। ऐसे में उनके लिए यह सब जुटा पाना मुमकिन नहीं था। हालांकि उन्होंने समस्याओं और संसाधनों की कमी को कभी अपने सपनों के आड़े नहीं आने दिया। 11 वर्ष की छोटी सी आयु में वह अंडर 15 चैंपियन बनी थी और 17 साल में जूनियर चैंपियन बनकर इतिहास रचा। मीरा काफी मेहनत करती रही, किन्तु मां-बाप के पास संसाधन नहीं थी। ऐसे में उन्हें आवश्यक चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ता था। बात यहां तक आ गई कि यदि वह रियो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई नहीं कर पाई, तो खेल को ही अलविदा कह देंगी। मगर कहते हैं ना, होता वही है जो ऊपर वाला चाहता है। मीरा के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। उन्हें खेल छोड़ने की  नौबत ही नहीं आई। मीरा वर्ल्ड चैंपियनशिप के अलावा ग्लास्को कॉमनवेल्थ गेम्स में भी रजत पदक जीत गईं। वेटलिफ्टिंग के अलावा मीरा को डांस करना भी काफी पसंद है। 

बता दें कि मीरा के लिए रियो ओलंपिक खराब रहा था। वह रियो ओलंपिक में गई तो थीं, किन्तु कहानी एकदम से अलग थी। खिलाड़ियों से पिछड़ना कोई नई बात नहीं है। मगर सबसे बुरा होता है, खेल को ही पूरा कर नहीं पाना और ऐसा ही मीराबाई चानू के साथ हुआ था। यह ऐसी चीज है जो खिलाड़ियों का आत्मविश्वास भी तोड़ देती है। किन्तु मीराबाई ने निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और टोक्यो ओलंपिक में वह कर दिखाया, जिसने भारत का गर्व पूरी दुनिया में ऊँचा कर दिया। मेडल जीतकर वह रो पड़ीं और खुशी में उन्होंने अपने कोच विजय शर्मा को गले लगा लिया। बाद में उन्होंने भांगड़ा करके ऐतिहासिक पोडियम स्थान हासिल करने का जश्न मनाया। देश के लिए मेडल जीतकर मीराबाई इतनी प्रसन्न थीं, कि उनकी ख़ुशी मास्क से भी छुप नहीं रही थी, जो पदक समारोह के दौरान और बढ गई।

मीराबाई चानू के सिल्वर मेडल जीतने के खबर सुनकर ख़ुशी से झूमा परिवार, इस अंदाज में मनाया जश्न

जानें कौन हैं 'पद्मश्री' मीराबाई चानू ? जिन्होंने Tokyo Olympics में भारत को दिलाया सिल्वर मेडल

Tokyo Olympics: मीराबाई चानू ने भारत को दिलाया सिल्वर मेडल, शूटिंग में सौरभ ने किया कमाल

Related News