नई दिल्ली: इतिहास की किताबों में हमें अक्सर यही सिखाया जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने सरदार पटेल की धमकी के बाद खुशी-खुशी अपनी रियासत को भारत में “विलय” कर लिया था। लेकिन सच्चाई यह है कि निजाम ने अंत तक अपनी रियासत को स्वतंत्र रखने की पूरी कोशिश की थी, या फिर पाकिस्तान का हिस्सा बनने का विचार किया था, जैसा कि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का मामला था। हकीकत यह है कि उस समय की घटनाओं से यह साफ होता है कि हैदराबाद का भारत में "विलय" नहीं हुआ, बल्कि उसे मजबूर कर के “कट्टर मज़हबी रजाकारों” के अत्याचारों से मुक्त किया गया था। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, लगभग 500 रियासतों ने भारत गणराज्य में विलय के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया था। 1948 तक भारत एक स्पष्ट आकार में आ चुका था, लेकिन केवल जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम ही थे, जो आज़ाद रहने की ज़िद पर अड़े थे। गृहमंत्री सरदार पटेल ने प्रयास किया कि मामले को बल प्रयोग के बिना सुलझाया जाए। पटेल का कहना था कि जब मैसूर, त्रावनकोर, बड़ौदा और इंदौर जैसी बड़ी रियासतें भारत के साथ मिल गईं हैं, तो भारत के बीचोंबीच हैदराबाद नामक पाकिस्तानी तत्व क्यों बने रहें? यही स्थिति जम्मू-कश्मीर रियासत की थी, जब पाकिस्तान से आए हमलावरों ने कश्मीर पर कब्जा करना शुरू किया था, तब महाराजा ने भारत के साथ विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया और भारत ने अपनी सेना भेजी। हैदराबाद के निजाम ने 11 जून 1947 को एक घोषणा की कि वह 15 अगस्त 1947 को हैदराबाद को एक आज़ाद देश के रूप में देखना चाहते हैं। निजाम भारत के साथ एक संधि करना चाहते थे, विलय नहीं। इस्लामी रजाकारों और प्रधानमंत्री मीर लईक अली ने निजाम पर अपनी पकड़ मजबूत कर रखी थी। जिन्ना ने भी निजाम की स्वतंत्रता की इच्छा को समर्थन दिया और सैन्य मदद का आश्वासन दिया था, क्योंकि निजाम ने मजहब के नाम पर पाकिस्तान को बीस करोड़ रुपए पहले ही दे दिए थे। 1946-48 के बीच, कम्युनिस्टों ने नालगोंडा, खम्मम और वारंगल जिलों के लगभग तीन हजार गाँवों को मुक्त करवा लिया था। कम्युनिस्ट और रजाकारों के बीच संघर्ष चल रहा था। किसी पक्के निर्णय के बिना, भारत सरकार और निजाम के बीच 29 नवम्बर 1947 को एक अस्थायी संधि की गई। माउंटबेटन, जो उस समय भारत के गवर्नर-जनरल थे, चाहते थे कि भारत सरकार निजाम को विशेष दर्जा दे और विलय या अधिग्रहण के बजाय संधि करे। नेहरू भी इसी पक्ष में थे कि कोई खूनी संघर्ष न हो। लेकिन पटेल इस बात पर अड़े थे कि भारत के बीच में एक पाकिस्तानी इस्लामी राज्य नहीं बनने देंगे। अंततः नेहरू और माउंटबेटन के दबाव में पटेल को झुकना पड़ा, जब तक कि माउंटबेटन जून 1948 में इंग्लैंड नहीं लौटे। इसके बाद केएम मुंशी को भारत सरकार के एजेंट-जनरल के रूप में भेजा गया, जो निजाम के राज्य में निगरानी रखे। मुंशी ने इस्लामी जेहादियों, रज़ाकारों और निजाम के शासन के तहत हो रहे अत्याचारों की रिपोर्ट पटेल को भेजी। निजाम ने भारत के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शिकायत की, कि भारत सरकार उनके खिलाफ हथियार एकत्र कर रही है। वास्तव में, निजाम ही स्मगलर सिडनी कॉटन के माध्यम से अपने रज़ाकारों के लिए हथियार जुटा रहा था। माउंटबेटन और नेहरू ने एक समझौता मसौदा तैयार किया, जिसमें निजाम को कई रियायतें दी गई थीं। जून 1948 में माउंटबेटन और नेहरू ने पटेल से मुलाकात की, लेकिन पटेल ने इसे खारिज कर दिया। निजाम ने भी इसे अस्वीकार कर दिया। पटेल ने बल प्रयोग करने का निश्चय किया, लेकिन नेहरू ने इसके लिए विरोध किया। गवर्नर जनरल सी.राजगोपालाचारी ने नेहरू और पटेल को बैठक में बुलाया। राजगोपालाचारी ने ब्रिटिश हाईकमिश्नर से आया टेलीग्राम दिखाया, जिसमें सिकंदराबाद में ब्रिटिश ननों के बलात्कार की खबर थी, जिससे नेहरू का विरोध ठंडा पड़ा। भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर जनरल रॉय बुचर ने नेहरू से मदद मांगी, लेकिन नेहरू ने उसे पटेल से बात करने की सलाह दी। रॉय बुचर पाकिस्तानी सेना के जनरल से भी मिलीभगत कर रहा था। पटेल ने रॉय बुचर का फोन टेप करवाया और उसे रंगे हाथ पकड़ लिया, जिसके बाद बुचर ने इस्तीफा दे दिया। 13 सितम्बर को भारतीय सेनाओं ने हैदराबाद को तीन तरफ से घेरना शुरू किया। निजाम और रज़ाकारों को आसानी से पराजित कर दिया गया। 18 सितम्बर 1948 को निजाम के जनरल सैयद अहमद इदरूस ने भारतीय जनरल जेएन चौधरी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। वामपंथी इतिहासकारों ने यह झूठ फैलाया कि हैदराबाद का “विलय” हुआ, जबकि वास्तव में निजाम को पराजित कर के उसे “मुक्त” किया गया था। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के लोगों को सरदार पटेल का धन्यवाद करना चाहिए कि उनकी दूरदृष्टि के कारण भारत के बीचोंबीच एक पाकिस्तानी राज्य बनने से बच गया। निजाम का इरादा भारत के साथ विलय का नहीं था। दो लाख से अधिक रज़ाकारों ने यह सिद्ध कर दिया था कि वे केवल पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे, भारत में नहीं। भारतीय सेना ने सिर्फ पांच दिन में उनकी विद्रोही गतिविधियों को समाप्त कर दिया। कासिम रिज़वी, मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (MIM) का संस्थापक, इस पराजय को कभी नहीं भूल पाया। इसी कासिम रिजवी ने पाकिस्तान जाने से पहले अपनी पार्टी MIM को अब्दुल वहाद ओवैसी को सौंप दिया, जिसके बाद इसमें आल इंडिया और जोड़ दिया गया। इसी पार्टी AIMIM का संचालन आज असदुद्दीन ओवैसी करते हैं, जो अब्दुल वहाद के पोते हैं। आज भारत, हैदराबाद को रजाकारों के अत्याचार से मुक्त कराने वाले वीर नायकों को सम्मान और श्रद्धांजलि अर्पित करता है। अब शुरू होगी 'आतिशी' पारी, केजरीवाल ने दिल्ली CM के नाम पर लगाई मुहर राहुल गांधी की टीम को अमेरिकी प्रेस क्लब ने क्यों लताड़ा? मौन है भारतीय मीडिया कर्नाटक में गणपति गिरफ्तार! शरद पवार के सामने देवी-देवताओं का अपमान, आखिर क्यों विपक्ष ?