इंदौर: ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव एवं तेज गर्मी के कारण दुनिया भर में इनसे निपटने के प्रयास जारी हैं। इसी कड़ी में IIT इंदौर ने गर्मी के मौसम में आंखों को ठंडक और सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक विशेष हाईटेक तकनीक का आविष्कार किया है। इस तकनीक से तैयार विशेष चश्मा, ग्लोबल वार्मिंग और तेज धूप के चलते पहनने वालों को बड़ी राहत देगा। यह गॉगल न केवल भारत में, बल्कि खाड़ी देशों, रेगिस्तानी इलाकों तथा अन्य गर्म प्रदेशों में भी उपयोगी साबित हो सकता है। कैसे काम करता है यह हाईटेक चश्मा? IIT इंदौर के भौतिकी विभाग में प्रोफेसर राजेश कुमार के नेतृत्व में विकसित यह चश्मा इलेक्ट्रोक्रोमिक कलर मॉड्यूलेशन तकनीक का इस्तेमाल करता है। यह तकनीक चश्मे को छोटे विद्युत प्रवाह के साथ इंफ्रारेड हीट को फ़िल्टर करने और गर्मी-अवरोधक क्षमता को समायोजित करने की अनुमति देती है। यह चश्मा न केवल आंखों को तेज गर्मी से बचाता है, बल्कि पहनने वालों को ठंडक और आराम भी प्रदान करता है। इसके लेंस में एक अनोखा गुण है जो रंग बदल सकता है। जब चश्मा गर्मी अवरोधक मोड में सक्रिय होता है, तो इसका रंग नीले और मैजेंटा के बीच बदलता है। यह संकेत देता है कि चश्मा ऊष्मा अवरोधक स्थिति में है। 15 प्रतिशत तक गर्मी रोकने की क्षमता इस चश्मे में टंगस्टन चाल्कोजेनाइड एवं ऑक्साइड जैसी सामग्रियों का उपयोग किया गया है। इलेक्ट्रोक्रोमिक सामग्रियों के संयोजन से यह चश्मा 15 प्रतिशत से ज्यादा गर्मी को रोकने में सक्षम है। इसका लेंस नीले और मैजेंटा रंग के बीच बदलता है, जिससे इसकी ऊष्मा-फिल्टरिंग क्षमता को स्पष्ट संकेत मिलता है। इसके अतिरिक्त, यह चश्मा सतह के दोनों ओर 6 डिग्री सेल्सियस का तापमान अंतर बनाए रखता है, जिससे पहनने वालों को अधिक आराम प्राप्त होता है। दुनिया के लिए मील का पत्थर गर्मी रोकने के अतिरिक्त, यह चश्मा 60 प्रतिशत तक प्रकाश नियंत्रण प्रदान करता है। इसका लचीला डिज़ाइन इसे विभिन्न परिस्थितियों में उपयोगी बनाता है, खासतौर पर जहां हीट आइसोलेशन की आवश्यकता होती है। IIT वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खोज आंखों की देखभाल और गर्मी प्रबंधन के क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। आर्मी और रेगिस्तानी इलाकों के लिए वरदान प्रोफेसर राजेश ने कहा, "यह तकनीक अत्यधिक गर्मी में काम करने वाले लोगों के लिए बेहद उपयोगी होगी। यह सेना एवं रेगिस्तानी इलाकों में काम करने वाले कर्मियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।" 3डी सिनेमा के लिए भी उपयोगी थोड़े परिवर्तन के साथ इस तकनीक का उपयोग 3डी सिनेमा के लिए विशेष चश्मे बनाने में भी किया जा सकता है। शोध टीम में महिलाओं की भागीदारी इस तकनीक के विकास में 50 प्रतिशत महिला वैज्ञानिकों ने अहम भूमिका निभाई है। टीम में भूमिका साहू, अंजलि घनघस, निकिता, डॉ. समेरा इवातुरी, डॉ. सुचिता कांडपाल, लव बंसल, देब रथ, डॉ. सुबिन के.सी., और डॉ. रवि भाटिया शामिल हैं। आईआईटी इंदौर की यह खोज ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव से निपटने में सहायक होगी और दुनिया भर में सराहना प्राप्त करेगी। काशी का 115 साल पुराना उदयप्रताप कॉलेज 'वक्फ' का है..! अंदर बना ली अवैध मस्जिद-मज़ार उद्धव सेना में फिर मचेगी भगदड़..! MVA से निकलना चाहते हैं गुट के कई नेता मॉल के कर्मचारी ने तोड़ा शोरूम में रखा 1800000 का सामान, चौंकाने वाली है वजह