इस 15 अगस्त को भारत स्वाधीन हुए 71 साल पूरे हो जाएंगे। स्वाधीनता या आजादी लफ्ज जबान पर आते ही एक मुस्कान चेहरे पर छा जाती है। इन 71 सालों में खूब तरक्की हुई। कांक्रीट की सड़क से लेकर कई मंजिला इमारतें और सिर पर मंडराते लाखों हवाई जहाज तक तरक्की हुई। यह तरक्की हमारी आजादी का प्रतीक है। इन प्रतीकों के बीच आज कहीं आजादी खो सी गई है। मुजफ्फरपुर, देवरिया, पटना जैसे मामले जब सामने आते हैं, तो यह आजादी बेमानी सी लगती है। मासूमों के साथ जो हैवानियत हुई और जो रही है, उसे देखकर आजाद भारत में आजादी के मायने अनजाने लगते हैं। आए दिन किसी न किसी बच्ची की अस्मत लुटने की खबरें देखकर सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि क्या हम सच में आजाद हुए हैं। क्या सच में देश आजाद हुआ है। हम अंग्रेजों के चंगुल से तो आजाद हो गए, लेकिन अपनी गंदी मानसिकता से आजाद नहीं हुए हैं। जिस देश में नवरात्रि में कन्या पूजन किया जाता है, उसी देश में जब किसी बालिका की अस्मत से खिलवाड़ किया जाता है, तो वह देश कहां आजाद हुआ है? कहां आजाद हैं ये बच्चियां, महिलाएं? इसके अलावा गौ रक्षा, जाति—धर्म, आॅनर के नाम पर हो रही हत्याएं हमारी आजादी पर कलंक लगा रही हैं। अगर हम सच में आजाद कहलाना चाहते हैं, तो आज जरूरत है बेमानी से हो रहे आजादी के मायनों तलाशने की। इन मायनों के लिए हमें अभी से प्रयास करना होगा और एक ऐसे देश की नीव रखनी होगी, जहां पर हर कोई सुरक्षित महसूस करे। जिस दिन देश का हर नागरिक बिना किसी डर के घर से बाहर निकल पाएगा, हमारी बच्चियां खुली सड़क पर चलते अनजान हाथों से नहीं डरेंगी, उसी दिन हम सच में आजाद कहलाएंगे, तभी आजादी के मायने सच होंगे। जानकारी और भी EDITOR DESK: हंगामा क्यों है बरपा? EDITOR DESK : महागठबंधन को गठबंधन की दरकार चैलेंज का फितूर या जान का जोखिम