इस वास्ते दामन चाक किया शायद ये जुनूँ काम आ जाए... इस वास्ते दामन चाक किया शायद ये जुनूँ काम आ जाए दीवाना समझ कर ही उन के होंटों पे मेरा नाम आ जाए मैं ख़ुश हूँ अगर गुलशन के लिए कुछ लहू काम आ जाए लेकिन मुझ को डर है इस गुल-चीं पे न इल्ज़ाम आ जाए ऐ काश हमारी क़िस्मत में ऐसी भी कोई शाम आ जाए इक चाँद फलक पर निकला हो इक चाँद सर-ए-शाम आ जाए मय-ख़ाना सलामत रह जाए इस की तो किसी को फ़िक्र नहीं मय-ख़्वार हैं बस इस ख़्वाहिश में साक़ी पे कुछ इल्ज़ाम आ जाए पीने का सलीका कुछ भी नहीं इस पर है ये ख़्वाहिश है रिंदों की जिस जाम पे हक़ है साकी का हाथों में वही जाम आ जाए इस वास्ते ख़ाक-ए-परवाना पर शमा बहाती है आँसू मुमकिन है वफ़ा के क़िस्से में उस का भी कहीं नाम आ जाए अफ़्साना मुकम्मल है लेकिन अफ़्साने का उनवाँ कुछ भी नहीं ऐ मौत बस इतनी मोहलत दे उन का कोई पैग़ाम आ जाए. -अनवर मिर्जापुरी