कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ -रामधारी सिंह दिनकर

कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,  नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ?

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नया स्वर खोजनेवाले ! तलातल तोड़ता जा,  कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;  नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?  वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।

[2]

वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,  जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ? बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,  उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?

[3]

हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,  रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।  सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,  गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।

-रामधारी सिंह "दिनकर"

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