जम्मू-कश्मीर में इस समय घाटी एक बुरे दौर से गुजर रहा है. यह बुरा दौर सिर्फ शुजात बुखारी और शहीद औरंगजेब जैसे लोगों के लिए है जिन्होंने घाटी में शांति स्थापित करने के अपनी जान तक को गँवा दिया. कश्मीर के राजनीतिक हलचलों और सत्ता के लालच में हमेशा से यहाँ के हालात जस के तस ही है. वहीं कुछ ऐसा ही हाल ही में देखने को मिला है. 2015 में कश्मीर में हुए चुनाव में भी कुछ ऐसा ही चित्र देखने को मिला जब अलगाववादियों की पार्टी कहे जाने वाली पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ देश की सबसे बड़ी राष्ट्रवादी पार्टी कहे जाने भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन किया था. इस गठबंधन के साथ ही कहीं कुछ ऐसा दिखाई दे रहा था जिसके चलते कश्मीर के लोगों के भीतर उम्मीद की एक किरण ने जन्म लिया था हालाँकि वो उम्मीद भी अब टूट चुकी है. कश्मीर में भाजपा और पीडीपी ने एक बार फिर लोगों को भरोसा दिलाया था कि आतंकवादियों से जंग लड़कर कश्मीर के हालातों पर काबू पा लेंगे, लेकिन हुआ कुछ इसका विपरीत. कश्मीर में लगातार सेना पर हमले, शहीद सैनिकों की लाशों पर राजनीति, लगातार चलती रही, चाहे उसमें कश्मीर का सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों शामिल होते रहे है. कश्मीर में पीडीपी हमेशा से एक ऐसी पार्टी रही जिसने अलगाववादियों को हमेशा से पूरा सहयोग किया है, यही कारण है कि पीडीपी को अलगाववादियों से पूरा समर्थन मिलता रहा है. सवाल इस गठबंधन से पहले भी उठते रहे है लेकिन उनके सुर अब तेज हो गए है कि जब बीजेपी इस बात से पूरी तरह वाकिफ थी कि पीडीपी उन लोगों को समर्थन देती है जो कश्मीर में शांति को भंग करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते थे, तो फिर चुनाव के बाद पीडीपी से गठबंधन क्यों? जब गठबंधन हो ही गया था और बीजेपी को इस बात पर पूरा भरोसा था कि वो इन हालातों पर काबू कर लेंगे तो फिर अब गठबंधन को तोड़ा क्यों? कश्मीर में इस गठबंधन के खत्म होने के साथ ऐसे कई सवाल है जो उठ रहे है. कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार यह भाजपा के 2019 चुनावों के लिए एक रणनीति है. हालाँकि कश्मीर के लिए इस गठबंधन के बाद और 2014 के आम चुनावों से पहले मोदी सरकार ने कई वादें किए थे, लेकिन उनमें सभी वादें अभी तक अधूरे ही दिखाई दे रहे है. सवाल यह भी उठता है कि जब केंद्र की मोदी सरकार यहाँ पर गठबंधन में रहने के बाद भी हालातों पर काबू नहीं कर पाई तो फिर सत्ता से बाहर रहने पर कश्मीर पर कैसे काबू किया जा सकता है? वहीं कश्मीर मुद्दों पर केंद्र की मोदी सरकार एक तरह से आखिरी उम्मीद ही थी जिनसे कुछ आस देश के लोगों ने लगाई थी. पिछले सत्तर सालों से कई सरकार बदली, कश्मीर में भी और केंद्र में भी लेकिन कश्मीर का हाल अभी तक वही बना हुआ है जो पहले हुआ करता था. अब देखने वाली बात यह होगी कि केंद्र की सरकार कश्मीर के मुद्दे पर आम चुनावों से पहले क्या रणनीति तय करती है. क्या केंद्र के अपने इस प्लान में कामयाब होती है या फिर कश्मीर हमेशा की तरह बीच मझधार में ही फंसता रह जाएगा, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.