आतंकियों को मारकर शहीद हुए कश्मीरी बशीर अहमद, लेकिन 'नसरल्लाह' पर रो रहे भारतीय मुस्लिम!

श्रीनगर: कश्मीर के कठुआ जिले में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों के बीच एक मुठभेड़ में हेड कांस्टेबल बशीर अहमद ने वीरता का अद्वितीय प्रदर्शन करते हुए अपनी जान की आहुति दी। उन्होंने अपने शौर्य से न केवल देश की सुरक्षा की, बल्कि मुठभेड़ में एक कट्टर पाकिस्तानी आतंकवादी को भी ढेर कर दिया। बशीर अहमद ने देशवासियों के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, जिससे जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों का मनोबल ऊंचा हुआ। इस मुठभेड़ में दो अन्य पुलिस अधिकारी घायल हुए, लेकिन उनकी स्थिति अब स्थिर है।

 

हालांकि, बशीर अहमद की शहादत पर महबूबा मुफ्ती और अन्य कश्मीरी नेताओं का कोई ट्वीट या शोक संदेश नहीं आया। न ही कश्मीर के मुस्लिम समुदाय की तरफ से कोई विरोध मार्च या श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब और स्पष्ट होती है जब देखा जाता है कि कश्मीर के कुछ हिस्सों में हजारों की संख्या में लोग सड़क पर उतरे, लेकिन उनका शोक बशीर अहमद के लिए नहीं, बल्कि लेबनानी आतंकी संगठन हिजबुल्लाह के सरगना हसन नसरल्लाह की मौत पर था। यह विरोधाभास और चिंता का विषय बन जाता है कि जो कश्मीरी अपने ही इलाके के एक बहादुर जवान की शहादत पर चुप्पी साधे रहे, वही लोग एक आतंकवादी की मौत पर मातम मना रहे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी मातम मनाया गया, महिला-पुरुष यहाँ तक की बच्चे तक, नसरल्लाह की तस्वीर लेकर सड़कों पर उतरे, और आतंकी नसरल्लाह को शहीद बताते हुए मुस्लिमों ने 3 दिन के शोक का ऐलान किया, बेहतर होता ये शोक आतंकी की जगह, शहीद कांस्टेबल बशीर अहमद के लिए रखा जाता।

 

हिजबुल्लाह का प्रमुख हसन नसरल्लाह, जो कि 'सीरिया का कसाई' के नाम से कुख्यात था, इजरायली रक्षा बलों द्वारा मारा गया। यह घटना हजारों किलोमीटर दूर लेबनान में हुई थी, लेकिन कश्मीर में इसका असर कुछ ऐसा हुआ कि हज़रों कश्मीरी मुसलमान सड़कों पर उतर आए। उन्होंने नसरल्लाह की तस्वीरें हाथों में थामे इजरायल विरोधी नारे लगाए, और कुछ नेताओं ने इसे 'मुस्लिम उम्माह' की एक बड़ी क्षति के रूप में पेश किया। यहाँ तक कि एक वीडियो में एक नाबालिग लड़की यह कहते हुए भी दिखी कि "हर घर से नसरल्लाह निकलेगा," यानी आतंकवाद को और बढ़ावा दिया जाएगा।

 

इससे यह सवाल उठता है कि आखिर भारत का मुसलमान किस दिशा में जा रहा है? जो अपने ही कश्मीरी भाई, हेड कांस्टेबल बशीर अहमद की शहादत का सम्मान नहीं कर पाए, उन्हें एक दूर देश के आतंकवादी की मौत पर शोक मनाने की क्या जरूरत है? क्या यह एक मजहबी पूर्वाग्रह है, जो कश्मीरी मुसलमानों को हिजबुल्लाह जैसे आतंकियों को अपना नायक मानने पर मजबूर कर रहा है?

यह सोचने वाली बात है कि आखिर क्यों भारत के मुस्लिम समाज में अब्दुल कलाम, अशफाकउल्ला खान, और बशीर अहमद जैसे सच्चे देशभक्तों की बजाय बुरहान वानी, हिजबुल्लाह और नसरल्लाह जैसे आतंकवादी हीरो बनते जा रहे हैं। जब यही लोग कहते हैं कि उनकी देशभक्ति पर शक ना किया जाए, तो यह कैसे संभव है? अगर एक बड़ा तबका आतंकियों को अपना नायक मानेगा, तो निश्चित रूप से यह सवाल उठेगा कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इसके पीछे मजहबी कारण हैं, जो कश्मीरी मुसलमान बशीर अहमद की शहादत की जगह नसरल्लाह की मौत को प्राथमिकता दे रहे हैं?

 

यह घटनाक्रम भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के लिए गंभीर चिंता का विषय है। एक ओर देश के सपूत अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं, और दूसरी ओर, उनके ही समुदाय के लोग आतंकवादियों के लिए मातम मना रहे हैं। अगर इस मानसिकता में बदलाव नहीं हुआ, तो यह देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है। बशीर अहमद जैसे वीरों की शहादत को भुलाया नहीं जा सकता, और ऐसे वीर जवानों के सम्मान में हर भारतीय को खड़ा होना चाहिए। वहीं, आतंकवाद को नायक मानने की प्रवृत्ति को चुनौती देना जरूरी है, ताकि देश की युवा पीढ़ी सही दिशा में आगे बढ़ सके।

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