जैन धर्म के चौब्बीसवें और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने सिर्फ जीवन के मूल मन्त्र की खोज ही नहीं की बल्कि उन्होंने बताया की किसी भी मनुष्य को मोह माया के जाल में फंसकर अपने मानवीय कर्तव्यों को कभी-भी नहीं भूलना चाहिए. वैसे तो उनके पहले 23 तीर्थंकर और हुए जिनमें पहले तीर्थंकर भगवान ॠषभदेव थे. तीर्थंकर का मूलअर्थ होता है पुल, घाट, सेतु अथवा गुरु अर्थात जो सहारा हमें नदी का दूसरा किनारा दिलाता है, उसे तीर्थ कहा गया है. उसी प्रकार जो हमें सहारा देकर जीवन के दूसरे किनारे तक ले जाये उसे ही जीवन का मूलमंत्र कहते है. भगवान महावीर की सबसे उच्च शिक्षा है - ‘जियो और जीने दो' . प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए की वो स्वयं अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को परेशान ना करे और ना ही उनके निज़ी जीवन में दखलअंदाज़ी करे. हर व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वयं ही भोगी होता है और उसका फल भी उसे ही मिलता है इसलिए कभी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भरता रखना गलत है. भगवान महावीर द्वारा दी गयी इस शिक्षा को भी यदि लोग वास्तव में सिर्फ इस सीमित अर्थ को भी पूरी तरह अपने जीवन में उतारकर इसका अनुकरण करें तो संसार में चल रहे सारे युद्ध बंद हो जाएँगे और विश्व में शांति और आनंद बहाल हो जायेगा. इस तरह से बन सकते है बेहतर व्यक्तित्व के स्वामी उपनिषद् में वर्णित है जीवन का आधार रवि पुष्य संयोग - धन-वर्षा के लिए खास होता है रवि पुष्य संयोग हिन्दू धर्म में क्यों विशेष माना जाता है केसर-तिलक को