3 लाख में मिलेंगी 3 करोड़ की दवाएं ! चिकित्सा क्षेत्र में भी 'आत्मनिर्भर' हो रहा भारत, घर में बना रहा वो दुर्लभ 'मेडिसिन' जो आज तक नहीं बनी थी

नई दिल्ली: भारत हर क्षेत्र में 'आत्मनिर्भर' बनने के लिए तेजी से कदम बढ़ा रहा है। अब देश के चिकित्सा क्षेत्र ने इस मुद्दे पर बड़ी उपलब्धि हासिल की है। दरअसल, दुर्लभ बिमारियों की जो दवाएं भारत दूसरे देशों से करोड़ों रुपए देकर मंगवाता था, अब उनका स्वदेशी उत्पादन शुरू हो गया है और वही दवाएं अब महज कुछ लाख रुपयों में उपलब्ध हो जाती हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया है कि भारतीय फार्मा कंपनियों ने चार दुर्लभ बीमारियों के लिए दवाओं का उत्पादन शुरू कर दिया है, जिससे महंगे आयातित फॉर्मूलेशन पर निर्भरता कम हो गई है। 

एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 4 दुर्लभ बीमारियों - टायरोसिनेमिया टाइप 1, गौचर रोग, विल्सन रोग और ड्रेवेट-लेनोक्स गैस्टॉट सिंड्रोम - के साथ-साथ सिकल सेल एनीमिया के लिए दवाओं को मंजूरी दे दी गई है और इन्हें स्वदेशी रूप से निर्मित किया जा रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मंत्रालय ने सिकल सेल एनीमिया के साथ-साथ 13 दुर्लभ बीमारियों से संबंधित कार्रवाई को प्राथमिकता दी है। रिपोर्ट के मुताबिक, आधिकारिक सूत्रों ने बताया है कि फेनिलकेटोनुरिया के लिए सैप्रोप्टेरिन टैबलेट, हाइपरअमोनेमिया के लिए टैब सोडियम फिनाइल ब्यूटायरेट और टैबलेट कारग्लुमिक एसिड और गौचर रोग के लिए कैप्सूल मिग्लस्टैट अनुमोदन की प्रक्रिया में हैं और अप्रैल 2024 तक उपलब्ध होने की संभावना है।

वहीं, सूत्रों ने बताया है कि इन दवाओं के स्वदेशी निर्माण से टायरोसिनेमिया टाइप 1 के इलाज में इस्तेमाल होने वाले निटिसिनोन कैप्सूल की वार्षिक लागत आयातित दवा की कीमत के सौवें हिस्से तक कम हो जाएगी। उन्होंने कहा कि, "उदाहरण के लिए, जहां आयातित कैप्सूल की वार्षिक लागत 2.2 करोड़ रुपये आती है, वहीं घरेलू स्तर पर निर्मित कैप्सूल अब सिर्फ 2.5 लाख रुपये में उपलब्ध होंगे।" स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़े सूत्र ने बताया है कि इसी तरह, आयातित एलीग्लस्टैट कैप्सूल की लागत, जो प्रति वर्ष 1.8-3.6 करोड़ रुपये आती है, अब केवल 3-6 लाख रुपये प्रति वर्ष में बेची जाएगी। इसमें आगे कहा गया है कि विल्सन की बीमारी के इलाज में इस्तेमाल होने वाले आयातित ट्राइएंटाइन कैप्सूल की कीमत 2.2 करोड़ रुपये प्रति वर्ष के बजाय 2.2 लाख रुपये प्रति वर्ष हो जाएगी।

ड्रेवेट-लेनोक्स गैस्टॉट सिंड्रोम के उपचार में उपयोग किया जाने वाला आयातित कैनबिडिओल (मौखिक समाधान) अब स्वदेशी विनिर्माण के कारण 7-34 लाख रुपये प्रति वर्ष की पिछली लागत के बजाय 1-5 लाख प्रति वर्ष पर उपलब्ध होगा। रिपोर्ट में बताया गया है कि सिकल सेल एनीमिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाले हाइड्रोक्सीयूरिया सिरप की व्यावसायिक आपूर्ति मार्च 2024 तक शुरू होने की संभावना है और अस्थायी कीमत 405 रुपये प्रति बोतल होगी। विदेश में इसकी कीमत 840 USD (70,000 रुपये) प्रति 100 ml है। गौरतलब है कि इनमें से किसी भी दवा का निर्माण अब तक देश में नहीं हुआ है।

रिपोर्ट के अनुसार, अधिकारीयों का कहना है कि, यह अभ्यास जुलाई 2022 में शुरू हुआ और शिक्षाविदों, फार्मा उद्योगों, संगठनों, सीडीएससीओ, फार्मास्यूटिकल्स विभाग के साथ चर्चा की गई जिसके बाद सिकल सेल एनीमिया के साथ 13 दुर्लभ बीमारियों को प्राथमिकता दी गई। इसके बाद दवा निर्माताओं और औषधि महानियंत्रक के साथ बातचीत की गई भारत की और इन दवाओं को मंजूरी दे दी गई और कीमतें कम कर दी गईं। अधिकारियों ने कहा कि दुर्लभ बीमारी विशेष रूप से कम प्रसार वाली एक स्वास्थ्य स्थिति है, जो कम संख्या में लोगों को प्रभावित करती है। यह किसी भी देश में किसी भी समय 6-8 प्रतिशत आबादी को प्रभावित करता है और भारत में 8.4-10 करोड़ मामले हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि इनमें से लगभग 80 प्रतिशत बीमारियाँ आनुवंशिक प्रकृति की होती हैं।

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