यह (शीर्षक) समाज-विज्ञान का एक ऐसा निष्कर्ष है, जो सार्वभौमिक व सर्वकालिक है। लेकिन आज इसे देश के अधिकांश लोग मन से स्वीकार करने को तैयार नहीं होंगे, जबकि यह हमारे देश के लिए सबसे जरुरी और सर्वाधिक प्रासंगिक है। फिलहाल 2 कारणों से इस मुद्दे पर गंभीर बहस की आवश्यकता अधिक सामयिक और महत्वपूर्ण हो गई है। पहला कारण तो है, राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत का कलकत्ता में 14 जनवरी को दिया गया भाषण और दूसरा है, पांच राज्यों के चुनाव, जिनमें धर्म व जाती ही हार-जीत के मुख्य आधार माने जाते हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने धर्म व जाती के नाम पर वोट मांगना प्रतिबंधित किया है, लेकिन सभी राजनैतिक दल ऐसे तरीके खूब जानते हैं, जिनसे धर्म व जाती का नाम भी लिए बिना ही, जिन्हें इस तरह के सन्देश या अपील पहुंचानी है, वे उसे समझ जाये। हम देख ही रहे हैं कि वे सब उन तरकीबों का इस्तेमाल बखूबी करने भी लगे है। कलकत्ता में मोहन भागवत ने कहा कि "हम तो केवल हिंदुओं को संगठित करते है, हम किसी अन्य धर्म के खिलाफ नहीं है।" यही तो वह बात है जो समाजशास्त्र के उक्त निष्कर्ष के खिलाफ जाती है। इस मुद्दे को कृपया यहीं बहुत गंभीरता से समझिये। यदि कोई भी व्यक्ति या संस्था ऐसा कहती, मानती और करती है, तो वह अपनी जाती, धर्म/ सम्प्रदाय आदि को तो मजबूत करने का काम करती है, परंतु उसे अन्य समुदायों से अलग या दूर भी कर देती है। जब आप कहते हो कि आप हिंदुओं को संगठित कर रहे हो, तो स्वाभाविक है कि कोई मुस्लिम, ईसाई आदि समुदायों के लोग आपसे नहीं जुड़ेंगे। इसी तरह अन्य समुदायों के लोग भी अलग-अलग संगठित होंगे और वे सब अपने-अपने झंडे के तहत एक-दूसरे के खिलाफ विभिन्न हितो के संघर्ष में लगेंगे ही। यह असंभव है कि ऐसे समुदाय आधारित संगठन बनें और उनके विचार, इरादे और हित आपस में न टकराये। इसे और स्पष्ट रूप से रसायनशास्त्र के एक सरल उदहारण से भी समझ सकते हैं। जब किसी घोल (विलयन) से क्रिस्टल्स बनाये जाते हैं या जैसे गन्ने के रस से शक्कर बनती है, तो उसमें यही होता है कि घोल या रस में घुले हुए ठोस पदार्थ के अणु छोटे-छोटे समूहों में एकत्रित व संगठित हो जाते है, घोल का पानी उड़ जाता है और घोल खंड-खंड हो जाता है, उसका एकत्व ख़त्म हो जाता है। यानी आप किसी देश या वृहत समाज के लोगों को जब जाती या धर्म-संप्रदाय के नाम पर संगठित करते हो, तो असल में आप परोक्ष रूप से उसकी एकता को खंडित करने का ही काम करते हो। आप भले ही कहे कि हम किसी अन्य समुदाय के खिलाफ नहीं है, पर इस तरह आप उन्हें भी अपने धर्म या जाती के नाम पर अधिक दृढ़ता व प्रतिस्पर्धी भावना के साथ संगठित होने का आह्वान करते हो। ... फिर आप चाहें या न चाहें, आपके बुरे ही नहीं अच्छे कथन और अच्छे काम भी दूसरों के लिए आपत्ति के मुद्दे बन जाते है। धर्मों के मामलों में तो यह प्रतिस्पर्धा कटु होकर दंगों के रूप में गाहे-बगाहे उभरती रहती है, और इतिहास के अनेक उदहारण हैं जब यह प्रक्रिया कई देशों में विभाजन का कारण भी बनी है। अब प्रश्न उठेगा कि, क्या हमें संगठित होने की आवश्यकता ही नहीं है? बिलकुल है, पर प्रतिप्रश्न है कि "क्या जाती और धर्म हमारे संगठित होने के आधार होने चाहिये ? हमारे पास संगठित होने के कई अच्छे आधार हैं, जो इनसे अधिक बेहतर, सुरक्षित व सकारात्मक परिणाम देने वाले है। जाती और धर्म तो ऐसे लेबल हैं, जो हम पर हमारे जन्म के साथ ही हमसे बिना पूछे चिपका दिए जाते हैं। एक बड़े रूप में संगठित होने का सीधा आधार हमारा भारतीय होना ही है और यही सबसे ख़ास आधार है, जो हमारे राष्ट्र को सशक्त करने वाला है। लेकिन, यह भी सही है कि हमारा देश इतना विशाल और इतनी आबादी वाला है, कि उतने विशाल रूप में संगठन की कई भूमिकाएं निभ ही नहीं सकती है। जैसे, उसके आधार पर हम न तो मौके-ब-मौके मिल सकते हैं, न कोई संगठन स्तर की सभा, वार्ता जैसे कार्यक्रम कर सकते है। इसलिए संगठन के विभिन्न उद्देश्यों के लिए हमें विभिन्न तरह के छोटे-बड़े संगठन चाहिए होते हैं। छोटे संगठनों में मल्टी, कॉलोनी, मोहल्लो, गांवों, कस्बों आदि रहवास के आधार पर बने संगठन बहुत ही उपयोगी व सार्थक होते हैं। व्यवसायों के आधार पर बने संगठन जैसे मजदुर संगठन, किसान संघ, कर्मचारीयों, व्यापारीयों, वकीलों, डॉक्टरों, शिक्षकों आदि के संगठन भी उतने ही उपयोगी है। उम्र व लिंग के आधार पर बने संगठनों की भी अपनी उपयोगिता है। भाषा, प्रांतीय संस्कृति व प्रांत के आधार पर बने संगठन कई सन्दर्भों में तो अच्छे होते है, पर कई सन्दर्भों में उनकी भूमिका भी नकारात्मक हो जाती है। लेकिन जाती व धर्म के आधार पर बने संगठनो की भूमिका तो सकारात्मक बहुत कम, नकारात्मक ही बहुत ज्यादा है। अब इतने सारे अच्छे आधार होने के बाद भी क्या एक मानवीय समाज या एक राष्ट्र की दृष्टि से हमें जातियों व धर्म के आधार पर भी संगठित होने की आवश्यकता है? ऐसी आवश्यकता के भी कुछ सन्दर्भ अवश्य ढूंढे या बताये जा सकते हैं; परंतु, क्या ऐसे संगठनों का मजबूत होना राष्ट्र के लिए व सामाजिक सद्भाव के लिए हितकारी है? इनके कुछ लाभ भी बताये जा सकते है, पर क्या इनसे होने वाली हानियां अधिक बड़ी व अधिक खतरनाक नहीं हैं? क्या इनकी सभी संभावित उपयोगिताएं अन्य तरह से नहीं पाई जा सकती है? ये सब ऐसे प्रश्न है. जिन पर सार्थक बहस से भी पहले गहन अध्ययन, मनन, चिंतन व विचार-विमर्श भी आवश्यक है। ये सभी बहुत गंभीर प्रश्न हैं और मैं यहाँ सिर्फ किसी के विचार का प्रतिवाद करने के लिए या कोरी बहस के लिए ही नहीं, बल्कि देश-समाज की चिंता करने या उसके बारे में चिंतन करने वाले लोगों से पहले चिंतन व विचार-विमर्श करने के आह्वान के लिए उठा रहा हूँ। यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरुरी है कि यह बात जरूर RSS के सन्दर्भ से शुरू की गई है, पर औचित्य संबंधी यह आपत्ति और ये सारे सवाल धर्म व जातियों के आधार पर बने हुए सभी अन्य संगठनों पर भी लागू होते हैं; जैसे MIM, मुस्लिम लीग, विभिन्न चर्चों के संगठन व मिशनरीज और जातिगत संगठन जैसे ए बी सी ब्राह्मण समाज, क ख ग वैश्य समाज, च छ ज क्षत्रिय समाज, जाट, गुर्जर, यादव आदि लाखों जातियों के संगठन। इन संगठनो की कई छोटी-छोटी सकारात्मक भूमिकाये भी बताई जा सकती है, पर देश की जनशक्ति को व मानवीय समाज को बाँट देने की जो बुराई है, उसके सामने ये सभी सकारात्मक भूमिकाएं तुच्छ सी हैं। कुछ लोग अब भी नहीं समझ कर या समझकर भी यह पूछेंगे कि जाती व धर्म आधारित संगठनों में बुराई क्या है? तो उनके लिए स्पष्ट करना पड़ेगा कि ये संगठन भावनाओं पर टिकी आस्थाओं, वंशानुगत गौरव-गाथाओं एवं रूढ़िवादिता पर टिके होते है और इनका आम जीवन की मूल व सामान्य बातों से कोई खास सरोकार नहीं रहता। खुले दिल-दिमाग से समझेंगे तो पाएंगे कि इनका कमजोर होना व ख़त्म हो जाना देश व मानवता के लिए जरा भी बुरा नहीं होगा, बल्कि बहुत अच्छा होगा। संघ के मामले में एक बात और भी उल्लेखनीय है कि उनके प्रमुख प्रवक्ताओं व बौद्धिकों को जब कभी हिन्दू शब्द की अवधारणा को सबसे सुरक्षित ढंग से व्याख्या करने की जरुरत पड़ती है, तो वे उसे भारतीयता का समानार्थी हो जाए ऐसी व्याख्या करते हैं। तब यह सवाल उठता है, कि फिर वे यह क्यों नहीं कहते कि "भारतीयों को संगठित करना है?" "हिंदुओं को संगठित करना" ऐसा कहने की जरुरत ही क्या है। चूँकि यहाँ पर यदि इस बात पर हम अधिक चर्चा करेंगे तो संघ की सैद्धांतिक बातो में कहाँ कितना विरोधाभास व कुतर्क है, वह एक अलग ही बहस को निमंत्रण दे देगा; इसलिए ऐसी बातो को फिलहाल बहस से बाहर रखना ही उचित होगा। हालाँकि, यह भी कटु सत्य है कि इस तरह के संगठन कोई थोड़े समय में ही ख़त्म होने वाले नहीं है। चूँकि, विडंबना तो यह है कि फिलहाल तो अधिकांश लोग इन्हें अच्छे ही नहीं जरुरी भी मानते हैं। यह सच्चाई जानते हुए भी इस बहस को मैं इसलिए उठा रहा हूँ, ताकि फिलहाल, ऐसे जाती या धर्म आधारित संगठनों के साथ हमने जो आस्था व प्रतिबद्धता जोड़ रखी है, वह कम हो और इनके गैर-जरुरी होने की बात को भी हम महसूस करना शुरू करें। जिन लोगों में यह जागरूकता आ जाये, कम से कम वे लोग तो अन्य अधिक अच्छे प्रकार के संगठनों से जुड़ाव को इनसे जुड़ने की तुलना में अधिक महत्त्व देने लगें। जब कोई ऐसे संगठन वाला कहे कि हम फलां धर्म या ढिकाणां जाती के नाम पर लोगों को संगठित कर रहे हैं या वे इस आधार पर "अपने लोगों" के हितों की रक्षा करेंगे या सरकार व अन्य संगठनो से संघर्ष करेंगे, तो असल प्रबुद्ध व जागरूक लोग इस बात को अच्छा महसूस न करें। इस तरह की प्रवृत्तियों को बुराई के रूप में देखा जाये। ऐसी प्रक्रिया शुरू हो कि जाती व धर्म पर आधारित संगठन कमजोर होते जाये व अन्य सकारात्मक प्रकार के संगठन अधिक सशक्त व सक्रिय बन सकें। * हरिप्रकाश "विसन्त" RSS मानहानि केस में आज भिवंडी कोर्ट में होंगे पेश राहुल गांधी भागवत के बिगड़े बोल, मुसलमानों को लेकर दिया विवादित बयान बसपा प्रत्याशी के बड़े बोल मुस्लिमों का वोट अधिकार छीनना चाहता है RSS