वैसे ये सच है कि जो पत्रकारिता,भारत में आज़ादी के पहले एक संकल्प थी वो आज़ादी के बाद पद,पैसा,प्रभाव का एक विकल्प बन गई. T.R.P. की जंग में, राजनीति के सम्बन्ध में, मशहूर नकाबो की चकाचौंध में और पैसे कमाने की धुन में पत्रकारिता अपने उद्देश्यों को भूल गयी और समाज को सत्य दिखने वाला आईना ही बिखर कर समाज को चुभने लगा | वैश्वीकरण,उदारीकरण और निजीकरण के दौर में समाजवादी,न्यायवादी पत्रकारिता (अख़बार,न्यूज़ चैनल ) पूंजीवादी,पार्टीवादी हो गई | एक चैनल जिस नेता को कोसता है तो दूसरा चैनल उसका गौरवगान करता हैं हद तो तब हो गई जब बंद हुकुमचंद मिल के मजदूरों की व्यथा,किसानो की आत्महत्या को भूलकर, चैनल, फ़िल्मी स्टार्स के बच्चो की,नई ड्रेस, पहली हसी, जोर की खासी और धीमी छींक को कवर करने लगा | हर घर, हर टीवी में सबसे पहले-सबसे तेज़ केवल हम ही दिखे इसके लिए खोजी पत्रकार मसालेदार खौफ़ के साथ रावण का कमरा,भूतो का हमला दिखाकर डराते है.और चैन से सोने का बोलकर जगाते है. ये तो हुई चैनल की बात और अब अखबार का पन्ना खोलिए तो दादा,पेलवान,भिया को जन्मदिन की बधाई के बड़े-बड़े पांडाल मिलेंगे हर पेज पर | खबर कम बर्थडे सेलिब्रेशन ज्यादा | एक दिन तो एक अजीब ही वाकया हुआ, एक दैनिक दोपहर अख़बार के एक पेज पर गुमशुदा इंसानों की सूचना के बीच एक परिवार के प्यारे श्वान के पहले जन्मदिन का बधाई सन्देश पूरी कलात्मकता और रचनात्मकता के साथ प्रकाशित किया गया था. क्या संतुलित द्रष्टिकोण था खोया,पाया साथ-साथ | शायद इसीलिए किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा हैं कि “तूने चाहा ही नही हालात बदल सकते थे तेरी आँखों के आंसू,मेरी आँखों से निकल सकते थे और खबरें तो इतनी थी इस देश में , की खून से छपकर भी अख़बार निकल सकते थे “ खैर प्रेस मालिको की भी अपनी कोई मजबूरी होगी वैसे भी महंगाई के जिस दौर में 1 किलो नमक भी 10 रुपय में आता है वहाँ पूरी दुनिया से नाता केवल 1 से 3 रूपए में जोड़ा जाता है.तो कुछ न कुछ समझौता तो पत्रकार और पाठक को भी करना ही पड़ेगा | लेकिन इन सब के बावजूद एक सच ये भी है. पद,पैसा,प्रतिष्ठा के बल पर बने बाहुबलियों की अराजकता के बावजूद यदि भारतीय समाज खुला जंगलराज नही बना तो केवल पत्रकारिता की बदौलत जब कोई पुलिस किसी मजलूम पर हुए अत्याचारों को अनदेखा करता है तो पत्रकार की कलम का दबाव ही उसे न्याय के लिए मजबूर करता हैं | जब कोई तंत्र, नियम कानून के नाम पर जनता को लुटने लगता है तो पत्रकार ही उस मजलूम जनता की आवाज़ बनता है.जब कोई जनसेवक से तानाशाह बनने लगता हैं तो पत्रकार ही उस तानाशाही के विरुद्ध जनजागरण की क्रांति छेड़ता हैं तमिलनाडु में सुनामी की चेतावनी हो या मुंबई की भारी बारिश में घर पर ही रहने की हिदायत लोगो को पता अख़बार और चैनल से ही चलता है. इसलिए व्यवस्थापिका,न्यायपालिका और कार्यपालिका के बाद पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाती हैं | खैर ऐसी बहुत सारी नकारात्मकता और सकारात्मकता के साथ पत्रकारिता का अनवरत सफ़र जारी है निश्चित तौर पर इसमें सुधार की गुंजाईश हैं फिर भी ये इंसान के मनोरंजन,ज्ञानवर्धन,और बहुत हद तक उसके अकेलेपन को दूर करने का सबसे सस्ता और असरदार संसाधन है. और इसलिए आज राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस पर इस चौथे स्तंभ के आदर्श रूप को समर्पित कुछ पंक्तिया हैं- समाज का दर्पण, व्यवस्थाओ का विश्लेषण,चरित्रों का चित्रण हैं पत्रकारिता कलम की धार, विचारो का संचार, सूचनाओ का प्रसार है पत्रकारिता यथार्थ की खोज, अन्याय पर रोष, सत्य कहने का जोश हैं पत्रकारिता अधिकारों का विवेचन, कर्तव्यो का मूल्यांकन, कायदों का आंकलन हैं पत्रकारिता देश की मानसिकता, घटना की आवश्यकता,निष्कर्षो की चेष्टा हैं पत्रकारिता और कुछ होना हो त्रुटी पर प्रहार,सही की जय-जयकार और आम आदमी का हथियार है पत्रकारिता | स्वतंत्र प्रेस जीवंत लोकतंत्र की नींव - पीएम