शिमला. शिमला में कटेडू व जमोगी घरानों के बीच में वर्षो पुरानी परंपरा चली आ रही है. जिसे की पत्थर मेला कहा जाता है. जिसमे बहुत से लोग गुरुवार को शिमला के धामी के खेल मैदान में एकत्रित हुए व वहां पर मौजूद दोनों ही घरानों के गुट एक दूसरे पर पत्थरो से हमला करने लगे तभी एक गुट जमोगी के हितेश को पत्थर लगा व उसके शरीर से खून निकलने लगा. इसके बाद यह पत्थरबाजी समाप्त हो गई. फिर हितेश को उसी समय यहां पर स्थित काली मंदिर में ले गए व उसके खून से माता को तिलक लगाया गया. यह एक पारंपरिक प्रथा है जो की वर्षो से शिमला में चली आ रही है. दीपावली के एक दिन बाद इस पारंपरिक मेले को धामी गांव में आयोजित किया जाता है जिसे की पत्थरो का मेला भी कहा जाता है. वहां के स्थानीय लोगो का कहना था की 18वीं शताब्दी में यहां पर इस उत्सव के तहत दोनों गुटो के लोग एक दूसरे पर छोटे छोटे पत्थर फेंकते थे. उनके मुताबिक इसमें घायल होना शुभ माना जाता था. तथा घायल व्यक्ति माता के मस्तक पर अपने खून से तिलक लगाता था. यहां पर पहले धामी के शासको के द्वारा मानव बलि की प्रथा को समाप्त करने के बाद इस परंपरा का आयोजन होने लगा. वहां के एक स्थानीय निवासी ने कहा की इस पत्थर मेले में तकरीबन 300 से अधिक लोग भाग लेते है. यह आयोजन तकरीबन आधे घंटे तक चलता है. अगर किसी को इसमें चोट लगकर खून निकलता है तो इसे रोक दिया जाता है. इस मेले को देखने के लिए बड़ी तादाद में आसपास के गाँवो के लोग एकत्रित होते है. इस दौरान यहां पर प्रशासन घायलो के इलाज के लिए आपातकालीन चिकित्सा शिविर का भी इंतजाम करता है ताकि घायल का जल्द से इलाज हो सके. इसी प्रकार से दीपावली के अगले दिन मध्यप्रदेश के गौतमपुरा में हिंगोट युद्ध की परंपरा भी वर्षो से चली आ रही है जिसमे भी दोनों गांव के लोग एक दूसरे पर हमला करते है. इस हिंसक युद्ध में दो दलों के बीच मुकाबला होता है। एक दल को तुर्रा तो दूसरे को कलंगी नाम दिया जाता है। इस युद्घ में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागी एक दूसरे पर बारुद से भरे हिंगोट से हमला करते हैं, इस हमले में कई लोगों के घायल होना आम बात है। पारंपरिक हिंगोट युद्ध की लेकर देपालपुर के करीब स्थित गौतमपुरा में लोगों में खासा उत्साह रहता है, यही कारण है कि इस इलाके मे दीपावली के पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती है। हिंगोट एक फल होता है जो नारियल जैसा होता है। बाहरी आवरण कठोर होता है तो भीतरी गूदे वाला। खासियत यह है कि यह फल सिर्फ देपालपुर इलाके में ही होता है। हिंगोट को हथियार बनाने के लिए फल को अंदर से खोखला कर दिया जाता है, फिर कई दिनों तक इसे सुखाया जाता है। इस फल के पूरी तरह सूखने के बाद इसके भीतर बारुद भरी जाती है, तथा एक ओर लकड़ी लगा दी जाती है। युद्घ के दौरान जब इस फल के एक हिस्से में आग लगाई जाती है तो वह ठीक राकेट की तरह उड़ता हुआ दूसरे दल के सदस्यों को आघात पहुंचता है।