कोरोना काल में लोगों का बढ़ रहा मानसिक तनाव, ऐसे जगा सकते है आत्मबल

महामारी के प्रकोप के बीच उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे, पिछले दिनों दुनिया से रुखसत होने वाले लोकप्रिय गीतकार योगेश के इस गीत को लोगों ने खूब याद किया। अंधेरे वक्‍त में नैराश्‍य को झटक देने के लिए आशा की किरण जहां मिले उधर मुड़ जाना इंसान का स्‍वभाव है। बढ़ते संक्रमण के संशय और अनिश्‍चितता भरे माहौल में जन-जीवन दोबारा चल पड़ा है तो यह आशा-उम्‍मीद की ही प्रेरणा है। वैक्‍सीन की खोज जब होगी तब होगी, आशा रूपी वैक्‍सीन सदा पास है, जो नकारात्‍मक विचारों से दूर रखने में मददगार है। पर आशा को बनाए रखना चुनौती क्‍यों है, क्‍या करें?

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आपकी जानकारी के लिए बता दे कि इन दिनों ऐसी कौन सी बात है जो तमाम आशंकाओं, दबावों के बीच भी समय से दिन शुरू करने की प्रेरणा देती है। समय ने चाहे जहां ला खड़ा किया, किसी को रुकना नहीं है मंजूर। लोग काम पर निकल रहे हैं और वर्क फ्रॉम होम यानी घर से काम करते हुए भी समय के साथ ढल रहे हैं। अनेक उलझनों-दबावों के बीच भी जीवन के कायदों, घर के सदस्‍यों का ख्‍याल है तो इसका आधार भी कुछ और नहीं मन में जगमगाती आशा है। 

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कोरोना काल में आशा आपकी पीड़ा नहीं हर सकती। शोक को कम नहीं कर सकती लेकिन मुश्किलों में भी चलते जाने, जुटे रहने, ‘सब अच्‍छा हो जाने’ की प्रार्थना करने की प्रेरणा जरूर देती है। यहां हिंदी साहित्‍य के पुरोधा बालकृष्‍ण भटट की पंक्ति प्रासंगिक है, ‘खुद में दृढ़ता चाहना मन की प्राकृतिक दशा है। हम बहुत थोड़े समय के लिए नैराश्‍य को मन में जगह देते हैं। यह इस बात का पक्‍का सबूत है कि मनुष्‍य का प्राकृतिक हित आशा में निहित है।’ ‘आशा’ नामक निबंध में उन्‍होंने एक पते की बात भी की है, ‘इंसान का सबसे बड़ा फर्ज आशा है, जिनके रहते हर फर्ज अदा हो सकती है।’

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