शायराना सी है ज़िन्दगी की फ़िज़ा : मिर्ज़ा ग़ालिब

बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल, जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला।

चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत, बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला।

 

बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल, जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला।

चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत, बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला।

 

आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है, ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है.

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले, नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है.

गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को, हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है.

हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर, ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है.

दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म’आनी, ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है.

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे, वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है.

तू ने क़सम मैकशी की खाई है “ग़ालिब”, तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है.

 

तुम न आए तो क्या सहर न हुई, हाँ मगर चैन से बसर न हुई, मेरा नाला सुना ज़माने ने, एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई.

 

इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के.

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