1861 का पुलिस कानून: राजनीतिक कठपुतली बनने पर मजबूर है पुलिस

अक्सर आप पुलिस अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को रौबीली वर्दी और विभिन्न स्थानों पर ड्युटी देते हुए देखते होंगे। कई बार ट्रैफिक नियमों का पालन करवाते हुए तो कभी धार्मिक और अन्य यात्राओं और चलसमारोह के दौरान व्यवस्थातंत्र को मजबूती प्रदान करते हुए मगर कहीं भी अपने कार्य को संपन्न करने के दौरान इनके चेहरे पर थकान नज़र नहीं आती। हर वक्त ये मुस्कुराते और चुस्त नज़र आते हैं।

कई बार विरोध प्रदर्शनों से अन्य लोगों को होती परेशानी के दौरान ये लोगों की मदद के लिए प्रदर्शनकारियों को हटा देते हैं तब भी बेहद सख्त बने हुए लेकिन लोगों के प्रति उदार बने हुए आप इन्हें देख सकते हैं मगर जब वर्दीधारी पुलिस अधिकारी या कर्मचारी राजनीति की कठपुतली बन जाता है तो उसे देशभक्ति जनसेवा जैसे शब्द केवल किताबी नज़र आते हैं। वहां पर कानून का डंडा उसके हाथ से छूटने की तैयारी में रहता है।

उसे लगता है कि पुलिस प्रशिक्षण अकादमी में उसने इतने वर्ष यूं ही बेकार कर दिए। मगर उसकी जनसेवा कई लोगों के मन में उसके प्रति सम्मान भर देती है। उत्तरप्रदेश में शराबबंदी को लेकर प्रदर्शन कर सड़क जाम करने वालों को हटाने गए आईपीएस अधिकारी की कथित तौर पर एक प्रभावशाली नेता से नोंकझोंक हो गई और फिर उन्हें जो कुछ कहा गया उससे उनके आंसू निकल आए। इसके बाद पुलिस अधिकारी ने सोशल मीडिया पर अपने आप को व्यक्त किया। मगर इस वाकये से यह चर्चा सामने आने लगी कि क्या पुलिस राजनीतिक हथियार है।

क्या पुलिस का उपयोग केवल लोगों को लाठी से ठेलने के लिए, रबर की गोलियां मारने के लिए और जब तक आंसू गैस के गोले छोड़ने के लिए ही किया जाता है या फिर पुलिस रूटिन का कार्य करते हुए केवल अपराधपंजी का ही काम करती है। नहीं पुलिस का अर्थ तो कुछ और है। मगर स्वाधीनता के इतने वर्षों बाद भी पुलिस की लगाम राजनीतिक हाथों में ही है। उसका अपना तंत्र स्वतंत्र नहीं है। 1861 के पुलिस कानून का काम था ब्रिटिश शासन के प्रति व्रिदेाह करने वाली जनता का दमन करना और ब्रिटिश राजतंत्र को मजबूती देना। आज 1861 की इसी व्यवस्था के कारण राजनीति का सशक्त हथियार बनकर रह गई है।

हमारा उद्देश्य किसी नेता, पुलिस अधिकारी या व्यक्ति विशेष को लेकर आलोचना करना नहीं है। मगर जिस तरह से 12 से 16 घंटों की कड़ी मेहनत वाली ड्यूटी तक करने वाले पुलिस अधिकारी और कर्मचारी परेशान हैं उससे जनतंत्र में पुलिस व्यवस्था अपनाए जाने का उद्देश्य पूर्णतः पूरा नहीं होता है। यदि पुलिस को राजनीतिक हाथों से अलग प्रजातांत्रिक मूल्यों पर काम करने दिया जाए तो संभवतः यह जनसेवक हो सकेगी।

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