क्या आप जानते हैं बिल्ववृक्ष और महालक्ष्मी की यह दुर्लभ कथा

सावन के महीने को भोले बाबा का महीना माना जाता है और इस महीने में उनका पूजन करना लाभदायक होता है. ऐसे में सावन के महीने में कई ऐसी कथा हैं जिन्हे पढ़ना या सुनना चाहिए. अब आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर क्यों महालक्ष्मी ने बेलवृक्ष का रूप लिया था...? और क्यों शिव ने माना था बिल्ववृक्ष को शिवस्वरूप...? आइए जानते हैं इस बारे में कथा.

कथा - नारदजी ने एक बार भोलेनाथ की स्तुति कर पूछा – प्रभु आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे उत्तम और सुलभ साधन क्या है. हे त्रिलोकीनाथ आप तो निर्विकार और निष्काम हैं, आप सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं. फिर भी मेरी जानने की इच्छा है कि आपको क्या प्रिय है? शिवजी बोले- नारदजी वैसे तो मुझे भक्त के भाव सबसे प्रिय हैं, फिर भी आपने पूछा है तो बताता हूं. मुझे जल के साथ-साथ बिल्वपत्र बहुत प्रिय है.जो अखंड बिल्वपत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करते हैं मैं उन्हें अपने लोक में स्थान देता हूं. नारदजी भगवान शंकर औऱ माता पार्वती की वंदना कर अपने लोक को चले गए. उनके जाने के पश्चात पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- हे प्रभु मेरी यह जानने की बड़ी उत्कट इच्छा हो रही है कि आपको बेलपत्र इतने प्रिय क्यों है. कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें.

शिवजी बोले- हे शिवे! बिल्व के पत्ते मेरी जटा के समान हैं.उसका त्रिपत्र यानी तीन पत्ते, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं. शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं. बिल्ववृक्ष को आप पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझें जो ब्रह्मा-विष्णु-शिवस्वरूप है. हे पार्वती! स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर बिल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था इस कारण भी बेल का वृक्ष मेरे लिए अतिप्रिय है. महालक्ष्मी ने बिल्व का रूप धरा, यह सुनकर पार्वतीजी कौतूहल में पड़ गईं. पार्वतीजी कौतूहल से उपजी जिज्ञासा को रोक न पाई.उन्होंने पूछा- देवी लक्ष्मी ने आखिर बिल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया? आप यह कथा विस्तार से कहें. भोलेनाथ ने देवी पार्वती को कथा सुनानी शुरू की. हे देवी, सत्ययुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिंग था. ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन-अर्चन किया था. इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे अनुग्रह से वाणी देवी सबकी प्रिया हो गईं. वह भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं.

मेरे प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति उपजी हुई वह स्वयं लक्ष्मी को नहीं भाई. लक्ष्मी देवी का श्रीहरि के प्रति मन में कुछ दुराव पैदा हो गया. वह चिंतित और रूष्ट होकर चुपचाप परम उत्तम श्रीशैल पर्वत पर चली गईं. वहां उन्होंने तप करने का निर्णय किया और उत्तम स्थान का चयन करने लगीं. महालक्ष्मी ने उत्तम स्थान का निश्चय करके मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारम्भ कर दी. उनकी तपस्या कठोरतम होती जा रही थी. हे परमेश्वरी कुछ समय बाद महालक्ष्मी जी ने मेरे लिंग विग्रह से थोड़ा उर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया.अपने पत्तों और पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं. इस तरह महालक्ष्मी ने कोटि वर्ष ( एक करोड़ वर्ष) तक घोर आराधना की. अंततः उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ.

मैं वहां प्रकट हुआ और देवी से इस घोर तप की आकांक्षा पूछकर वरदान देने को तैयार हुआ. महालक्ष्मी ने मांगा कि श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है वह समाप्त हो जाए. शिवजी बोले- मैंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है. वाग्देवी के प्रति उनका प्रेम नहीं अपितु श्रद्धा है. यह सुनकर लक्ष्मीजी प्रसन्न हो गईं और पुनः श्रीविष्णु के ह्रदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगी. हे पार्वती! महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था. इस कारण हरिप्रिया उसी वृक्षरूपं में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगी. हे पार्वती इसी कारण बिल्व का वृक्ष, उसके पत्ते, फलफूल आदि मुझे बहुत प्रिय है. मैं निर्जन स्थान में बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं. बिल्ववृक्ष को सदा सर्वतीर्थमय एवं सर्वदेवमय मानना चाहिए. इसमें तनिक भी संदेह नहीं है. बिल्वपत्र, बिल्वफूल, बिल्ववृक्ष अथवा बिल्वकाष्ठ के चन्दन से जो मेरा पूजन करता है वह भक्त मेरा प्रिय है.

बिल्ववृक्ष को शिव के समान ही समझो.वह मेरा शरीर है. जो विल्व पर चंदन से मेरा नाम अंकित करके मुझे अर्पण करता है मैं उसे सभी पापों से मुक्त करके अपने लोक में स्थान देता हूं. हे देवी उस व्यक्ति को स्वयं लक्ष्मीजी भी नमस्कार करती हैं जो बिल्व से मेरा पूजन करते हैं. जो बिल्वमूल में प्राण छोड़ता है उसको रूद्र देह प्राप्त होता है. मेरी पूजा के लिए बेल के उत्तम पत्तों का ही प्रयोग करना चाहिए…

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