राम से पहले भी एक योद्धा ने युद्ध के दौरान रावण को परास्त किया था। उस महान योद्धा का नाम था सहस्त्रार्जुन। सहस्त्रार्जुन ने कैसे रावण को परास्त किया और रावण जैसा योद्धा कैसे सहस्त्रार्जुन के सामने नहीं टिक सका। एक समय जब रावण विश्वविजय के लिए निकला तब वह सभी राजाओं को हराता हुआ महिष्मति नामक राज्य पहुंचा। इस राज्य में राजा सहस्त्रार्जुन का शासन चलता था, जब रावण अपनी सेना के साथ महिष्मति नदी के निकट पहुंचा तब उसने सोचा क्यों ना अपने आराध्य प्रभु शिव की आराधना की जाए। ये सोचकर रावण ने नदी के तट पर ही एक शिवलिंग की स्थापना की और भगवान शिव की आराधना करने लगा। उसी समय उस नदी के दूसरी ओर राजा सहस्त्रार्जुन अपनी अनेक रानियों के साथ घूमने निकले। राजा सहस्त्रार्जुन को भगवान दत्तात्रेय ने हज़ार भुजाओं का आशीर्वाद दिया था इस बारे में उनकी सभी पत्नियों को पता था।सभी रानियों ने सहस्त्रार्जुन से उन भुजाओं की सहायता से कुछ अनूठा करने का अनुरोध किया। तब सहस्त्रार्जुन ने अपनी हज़ार भुजाओं की सहायता से नदी के असीमित बहाव को रोक दिया। ऐसा करने से नदी के दूसरे छोर पर जल की मात्रा अत्यधिक बढ़ गई और इसी कारण रावण का शिवलिंग भी नदी में बह गया। यह देखकर रावण को क्रोध आ गया और उसने अपने कुछ सैनिकों को इस बात का पता लगाने के लिए नदी के दूसरे छोर पर भेजा। जब रावण के सैनिक नदी के उस छोर पर पहुंचे तब उन्हें सम्पूर्ण बात की जानकारी हुई। उन्होंने राजा सहस्त्रबाहु को दंड देने के लिए उन्हें बंदी बनाने की कोशिश की लेकिन राजा सहस्त्रबाहु ने अपने पराक्रम से उन सैनिकों को आसानी से परास्त कर दिया। हारे हुए सैनिकों ने रावण को पूरी स्थति से अवगत कराया तब रावण स्वयं सहस्त्रबाहु से युद्ध करने के लिए गया। जब वह सहस्त्रबाहु के पास पहुंचा तब उसने सहस्त्रबाहु को युद्ध के लिए ललकारा लेकिन सहस्त्रबाहु ने यह कहकर लडऩे से मना कर दिया कि रावण अभी उसका मेहमान है इसलिए वह रावण से युद्ध नहीं कर सकता परन्तु अपने विश्वविजय के मद में चूर रावण ने महापराक्रमी सहस्त्रबाहु को अपशब्द कहते हुए उसे युद्ध करने के लिए कहा और अंत में ना चाहते हुए भी सहस्त्रबाहु को रावण से युद्ध करना पड़ा। युद्ध कई दिनों तक चलता रहा और दोनों ही योद्धाओं ने हर तरह की शक्ति का प्रयोग किया। अंत में सहस्त्रार्जुन ने अपना असली रूप दिखाते हुए अपने हज़ार हाथां से रावण को कसकर जकड़ लिया, रावण ने बहुत कोशिश की परन्तु वह उसकी पकड़ से छूट नहीं पाया और सहस्त्रबाहु ने उसे अपने कारागार में डाल दिया। जब यह बात रावण के दादा महर्षि पुलस्त्य को पता चली तब वे स्वयं सहस्त्रार्जुन के पास पहुंचे और उससे माफ़ी मांगकर रावण को आज़ाद करवाया। इसके बाद रावण ने सहस्त्रार्जुन से मित्रता की और लंका की ओर प्रस्थान किया।