राजनीति का संतकरण

इन दिनों राजनीति में संतों की अच्छी—खासी संख्या हो गई है। कई बाबा राजनीति में उतर रहे हैं और राजनीति का संतकरण करने की कवायद जारी है। हाल ही में मध्यप्रदेश की राजनीति में कंप्यूटर बाबा का नाम काफी उभरकर सामने आया है। गुरुवार को राजनीति के चलते कंप्यूटर बाबा को उनके ही अखाड़े ने निष्कासित कर दिया। हाल ही में ऐसी खबर भी आई थी कि प्रवचनकर्ता देवकीनंदन ठाकुर विधानसभा चुनाव में उतरेंगे। ठाकुर ने अपनी पार्टी भी बना ली है, जिसके तहत मध्यप्रदेश की सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे जाएंगे। वहीं बुधवार को एक और संत गुरुशरण शर्मा ने भी राजनीति में उतरने की घोषणा कर दी।  

इस समय जिस तरह से राजनीति में संतों का आगमन हो रहा है, उसे देखकर तो यही लगता है कि राजनीति का संतकरण जल्द ही हो जाएगा। राजनीति राजनीति न रहकर संत राजनीति बन जाएगी। यहां पर सोचने वाली बात यह है कि आखिर क्यों संत राजनीति में आ रहे हैं और इसके पीछे उनकी मंशा क्या है? अगर इन सब प्रश्नों पर गौर किया जाए, तो एक बात साफ नजर आती है कि संतनीति से इतर इन बाबाओं की मंशा राजनीति  में उतरकर देश के कर्ता—धर्ता बनने की है। दरअसल, जिस तरह से आज के समय में बाबाओं पर कानून का शिकंजा कसता जा रहा है और जिस तरह से काले कारनामे वाले बाबा  जेल की  सलाखों के पीछे पहुंच रहे हैं, उसे देखते हुए कुछ बाबाओं को डर  सताने लगा है। इन बाबाओं को लगने लगा है कि राजनीति में वह ज्यादा सुरक्षित हैं। वहीं राजनेता भी इन बाबाओं का साथ लेकर  अपने वोट बैंक को सुरक्षित बनाने की चाहत रखते हैं, इसीलिए सरकार अपनी कैबिनेट में भी संतों को शामिल करने लगी है, ता​कि उनका वोट बैंक बढ़ सके।

इन सबके बीच एक बात समझने वाली है कि राजनीति का यह संतकरण क्या देश का विकास कर पाएगा? क्या जिन्होंने समाज से इतर  वैराग्य का दिखावा करने के लिए संत का चोला ओढ़ रखा था, उनका राजनीति में प्रवेश देश हित में होगा? इन लोगों ने जिस तरह से अपने संत के वेश में जनता को छला है, वह देश के अगर रहनुमा बन गए, तो देश को नहीं छलेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढना बेहद जरूरी है। 

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