मद्रास उच्च न्यायालय ने एक हालिया फैसले में कहा है कि मुस्लिम पुरुष का दूसरा निकाह करना उसकी पहली पत्नी के लिए 'मानसिक क्रूरता' जैसा है। हालांकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत न्यायालय ने माना कि उसे दूसरा निकाह करने से रोका नहीं जा सकता। इस मामले की सुनवाई के चलते न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि शरिया काउंसिल को तलाक का प्रमाण पत्र जारी करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। वही इस मामले में पति ने ही हाई कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर की थी, जिसमें उसने निचली कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी जिसमें उसे पहली पत्नी को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया गया था। पति का कहना था कि दूसरे निकाह से पहले ही उसका पहला निकाह टूट चुका था। इसे साबित करने के लिए उसने शरिया काउंसिल द्वारा जारी किया गया तलाक का प्रमाण पत्र भी पेश किया, किन्तु उच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि जब तक न्यायालय से आदेश नहीं मिलता, पहला निकाह मान्य रहेगा। इसी आधार पर, न्यायालय ने उसे पहली पत्नी को 5 लाख रुपये मुआवजा एवं नाबालिग बच्चे के भरण-पोषण के लिए हर महीने 25 हजार रुपये देने का आदेश दिया। फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन ने कहा कि पति के दोबारा निकाह करने से पहली पत्नी को भावनात्मक रूप से अत्यधिक दुख और पीड़ा हुई है। उन्होंने कहा, "मुस्लिम होने के नाते याचिकाकर्ता को दूसरा निकाह करने की स्वतंत्रता है, किन्तु इसके परिणामस्वरूप उसे इसका भुगतान करना होगा। उसके इस कदम से पहली पत्नी को मानसिक आघात पहुँचा है, जो मानसिक क्रूरता के समान है।" निचली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए उच्च न्यायालय ने माना कि मुस्लिमों को कानूनी रूप से चार निकाह करने की अनुमति है। किन्तु यह कानूनी अधिकार या स्वतंत्रता उनकी पत्नी के अधिकारों को कम नहीं करती। भले ही पत्नी पति को दूसरा निकाह करने से रोक नहीं सकती, किन्तु भरण-पोषण का खर्च माँगना उसका अधिकार है तथा इसे देने से पति इनकार नहीं कर सकता। 'आतंकियों को पनाह दी तो मिट्टी में मिला देंगे घर', LG मनोज सिन्हा ने दी-चेतावनी 'जीत पर हार्दिक बधाई, मेरे दोस्त डोनाल्ड ट्रंप', PM मोदी ने अनोखे अंदाज में दी-बधाई 'होटल न्यू नसीब' से शख्स ने आर्डर की सेव टमाटर की सब्जी, निकली हड्डी और...