नई दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को घेरने आ रहे किसान आंदोलनकारियों को रोकने के लिए हरियाणा सरकार ने शंभू बॉर्डर को ब्लॉक कर दिया था, जिसके बाद से किसानों ने वहीं तम्बू गाड़कर बैठना शुरू कर दिया था। इस मामले में अब पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने बड़ा कदम उठाया है। अदालत ने हरियाणा सरकार को आदेश दिया है कि वो 1 सप्ताह के भीतर शंभू बॉर्डर और हाई-वे को शुरू करे और जो भी बेरीकेडिंग की है, उसे हटाए। खबरों के अनुसार, उच्च न्यायालय ने एक PIL की सुनवाई करते हुए ये आदेश दिया है। अदालत का कहना है कि किसानों का प्रदर्शन काफी समय से चल रहा है, लेकिन उन्हें कानून व्यवस्था भी बनाए रखना चाहिए। उच्च न्यायालय ने कहा कि अब शंभू बॉर्डर पर महज 500 प्रदर्शनकारी बैठे हुए हैं, इस लिए अब यह हाईवे शुरू किया जा सकता है। यह बीते पांच महीने से लगातार बंद है, इसे अब और अधिक दिनों तक बंद नहीं रखा जा सकता है। बता दें कि, शंभू बॉर्डर के व्यापारियों ने किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए बॉर्डर खोले जाने को लेकर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिसके बाद उच्च न्यायालय के वकील वासू रंजन शांडिल्य ने शंभू बॉर्डर खुलवाने को लेकर याचिका लगाई थी। वासु रंजन ने अपनी याचिका में कहा था कि अंबाला और शंभू के आसपास के मरीज बॉर्डर बंद होने की वजह से काफी परेशानी उठा रहे हैं। एंबुलेंस को भी निकलने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इसी याचिका पर कोर्ट ने आदेश दिया है और कहा है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी हरियाणा और पंजाब दोनों सरकारों की है। अदालत ने किसानों से भी कहा है कि, वे प्रशासन की तरफ से तय जगहों पर आंदोलन कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि किसान पिछले कई महीनों से MSP को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। कुछ महीने पहले किसान पंजाब से दिल्ली की तरफ बढ़ रहे थे, उसी दौरान उन्हें पंजाब बॉर्डर पर ही रोकने के लिए हरियाणा सरकार ने शंभू बॉर्डर को बंद कर दिया था। इस बॉर्डर के बंद होने के कारण दिल्ली-चंडीगढ़ हाईवे का एक हिस्सा भी बंद हो गया था। अब उच्च न्यायालय ने ये बॉर्डर खोलने का आदेश दिया है, अब देखना ये है कि, हरियाणा सरकार इसका पालन कैसे करती है और क्या किसान राजी होते हैं ? कृषि कानून से शुरू हुआ मामला अब तक नहीं थमा, क्यों ? ये बात तथ्य है कि, किसानों को अन्नदाता के रूप में मैंने वाले देश भारत में किसान ख़ुदकुशी करने और दयनीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। किसानों की स्थिति में सुधार करने की मंशा से 2019 में सरकार कृषि कानून लेकर आई। लेकिन यहां भी अंबानी सबको गुलाम बना लेगा, अडानी सभी किसानों की जमीन खरीद लेगा का भ्रम फैलाकर किसानों को खेतों से निकालकर सड़क पर उतार दिया गया। बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची, कोर्ट ने एक समिति का गठन कर कृषि कानूनों की समीक्षा करने के काम पर लगा दी। यहां आंदोलन रुक जाना चाहिए था और रुक भी जाता, अगर राजनेता किसानों के कन्धों पर बन्दूक रखकर विधानसभा चुनावों का शिकार करने की कुत्सित योजना न बनाते। अंदोलन में शामिल योगेंद्र यादव खुद TV पर स्वीकार चुके हैं कि, हमने तो यूपी विधान्सबह चुनाव के लिए पिच बना दी थी, विपक्ष ही बैटिंग नहीं कर पाया। जहाँ चुनाव होते वहां विपक्षी नेता राकेश टिकैत को बुला लेते और किसानों के नाम पर अपनी सियासत चमकाने लगते और टिकैत भी वहां पर जाकर किसानों से अधिक सरकार को उखाड़ फेंकने का दम भरते। राजनेताओं का ये सिलसिला चलता रहा और इधर निर्दोष- बुजुर्ग किसान अपनी जान गंवाते रहे। किसानों की मौतें तो हुईं ही, साथ ही लाल किला हिंसा, सामूहिक बलात्कार, क़त्ल और बेअदबी का आरोप लगाकर बर्बरता करने का दाग भी किसान आंदोलन पर लगा। इस आंदोलन में अधिकतर पंजाब, हरियाणा और कुछ यूपी के किसान थे, बाकी पूरे देश में इसको लेकर अधिकांश सियासी दल ही विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इधर, सुप्रीम कोर्ट की कमिटी कृषि कानूनों का फायदा-नुकसान पता करने में लगी थी, रिपोर्ट बनी और 21 मार्च 2021 को सर्वोच्च न्यायालय में जमा कर दी गई। सरकार इस फ़िराक़ में थी कि, सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट के बाद ही सही, लेकिन किसान इसके फायदे को समझेंगे और आंदोलन वापस ले लेंगे। किसान समझ भी जाते, अगर राजनेता उन्हें समझने देते, उन्हें तो किसानों के रूप में एक बड़ा वोट बैंक दिखाई दे रहा था। सुप्रीम कोर्ट की इस कमिटी में कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी और किसान नेता अनिल घनवट सदस्य थे। सर्वोच्च न्यायालय ने 4 सदस्यीय टीम बनाई थी, लेकिन किसान नेता भूपिंदर सिंह मान ने इससे अपने आप को अलग कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट जमा होने के बाद निरंतर इसे सार्वजनिक किए जाने की मांग होने लगी, लेकिन रिपोर्ट को जनता के सामने पेश नहीं किया गया। आखिरकार, 700 किसानों की मौत और 12 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होने के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानून वापस ले लिए। उनके शब्द थे, 'ये कानून किसानों के हित के लिए लाए गए थे और देश हित में वापस लिए जा रहे हैं।' समय गुजरा और सबकुछ सामान्य होने लगा, आख़िरकार 21 मार्च 2021 को सुप्रीम कोर्ट में जमा हुई रिपोर्ट मार्च 2022 में सामने आई, जिसमे बताया गया था कि, देश के 86 फीसद किसान संगठन इन कानूनों के पक्ष में हैं। हमें ग्रेटा, रेहाना, जैसे लोगों के ट्वीट और टूलकिट भर-भरकर दिखाए गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट दबा दी गई । यहां भी एक बड़ा समर्थक तबका केवल इसलिए हार गया क्योंकि, वह सड़कों पर नहीं उतरा, उसने दिल्ली की सरहदों को अवरुद्ध नहीं किया और न ही लाल किले पर उपद्रव मचाया। रिपोर्ट सामने आने के बाद SC की कमिटी के सदस्य अनिल घनवट ने कहा था कि, कानूनों को वापस लेकर मोदी सरकार ने बड़ी भूल की है। घनवट ने माना है कि इस रिपोर्ट से किसानों को कृषि कानूनों के फायदे के बारे में समझाया जा सकता था और इनको रद्द होने से रोका जा सकता था। लेकिन अगर विपक्ष हंगामा न करता तो संभव था कि, न 700 किसानों की जान जाती और न देश को बड़ा आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता। ब्यूटी पार्लर के नाम पर भारतीय लड़कियों को फंसाना और फिर खाड़ी देशों में.., सैफुद्दीन और कांग्रेस नेता का कनेक्शन ! खच्चर की पीठ पर 108 किलो सोना, चीन बॉर्डर से ITBP ने दो तस्करों को दबोचा NEET-UG पेपर लीक मामले में CBI ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की रिपोर्ट, जानिए क्या कहा ?