जेल गईं, लेकिन इंदिरा गांधी से नहीं मांगी माफ़ी..! राजमाता विजयाराजे सिंधिया की जयंती आज

ग्वालियर: महारानी विजयाराजे सिंधिया का जीवन प्रेरणा, सादगी और सेवा का अनुपम उदाहरण है। वह भारतीय राजनीति में एक ऐसी शख्सियत रहीं जिन्होंने महारानी होने के बावजूद अपना जीवन सेवा भाव में समर्पित किया। उनका जन्म 12 अक्टूबर 1919 को सागर जिले के राणा परिवार में हुआ था। उनके पिता महेन्द्र सिंह ठाकुर एक डिप्टी कलेक्टर थे और उनकी माता विंदेश्वरी देवी ने उन्हें बचपन में "लेखा दिव्येश्वरी" के नाम से पुकारा।

विजयाराजे का विवाह 21 फरवरी 1941 को ग्वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया से हुआ। हालांकि, पति के निधन के बाद उन्होंने राजसी ठाठ-बाट त्यागकर समाजसेवा और जनसेवा के उद्देश्य से राजनीति में कदम रखा। वह 1957 में कांग्रेस पार्टी से चुनाव जीतकर लोकसभा की सदस्य बनीं। लेकिन उनके आदर्श और सिद्धांत कांग्रेस पार्टी की विचारधारा से मेल नहीं खाते थे, इसलिए कुछ समय बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ लिया और भारतीय जनसंघ का हिस्सा बन गईं।

 

1967 में विजयाराजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश में डीपी मिश्रा के मुख्यमंत्रित्व काल के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया। उन्होंने 36 कांग्रेस विधायकों को अपने पक्ष में कर डीपी मिश्रा को मुख्यमंत्री पद से हटाने में सफलता प्राप्त की। उस समय, उनके नाम की चर्चा प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए खूब हुई, लेकिन राजनीति में पद की आकांक्षा से दूर रहने के उनके स्वभाव के कारण उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री बनने से इनकार कर दिया और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री नियुक्त किया। यह घटना उनकी निष्ठा, सादगी और सेवा भाव का अद्भुत उदाहरण है।

राजनीति में विजयाराजे सिंधिया का सफर लंबा और प्रेरणादायक रहा। वह आठ बार लोकसभा, एक बार राज्यसभा और एक बार विधानसभा के लिए निर्वाचित हुईं। लेकिन, राजनीति को उन्होंने हमेशा समाजसेवा और धर्मनीति को आगे बढ़ाने का एक माध्यम माना। उन्होंने राजनीति की "काजल कोठरी" में रहते हुए भी अपने श्वेत वस्त्रों पर कोई कालिख नहीं लगने दी। उनके लिए राजनीति कभी भी राज्य और सत्ता पाने का जरिया नहीं रही। इसके कई अवसर मिलने के बावजूद, उन्होंने उपराष्ट्रपति, मुख्यमंत्री और भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पद जैसे महत्वपूर्ण पदों को ठुकरा दिया।

विजयाराजे सिंधिया ने अपने राजनीतिक जीवन में कई बार त्याग और समर्पण का परिचय दिया। उन्होंने अपनी करोड़ों रुपए की संपत्ति समाजसेवा और शिक्षा के लिए दान कर दी। उन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर, गोरखी शिशु मंदिर और एमआईटीएस कॉलेज जैसी शिक्षण संस्थानों के लिए अपनी कीमती जमीन दान की, जिससे हजारों बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। उनका मानना था कि राजनीति केवल राज करने की नीति नहीं बल्कि समाजसेवा का एक पवित्र मिशन है।

उनकी ईश्वर के प्रति भक्ति और धार्मिकता अद्वितीय थी। वह मंदिरों में घंटों साधना और पूजा करती थीं। इसी धार्मिक स्वभाव के कारण, वह हमेशा सत्य के लिए खड़ी रहीं और अन्याय के खिलाफ झुकी नहीं।  जब 70 के दशक में ततकालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया, तो उन्हें भी गिरफ्तार किया गया। लेकिन अन्याय के आगे झुकने के बजाय उन्होंने तिहाड़ जेल में उन कैदियों के साथ रहना पसंद किया जिन पर गंभीर अपराध थे। उन्हें शर्त दी गई थी कि यदि वह इंदिरा गांधी के अधीनता को स्वीकार कर लें और माफी मांग लें तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। लेकिन, उन्होंने माफी मांगने से इनकार कर दिया और जेल में रहना स्वीकार किया।

1971 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को छोड़ दिया, तब भी उनका नाम अध्यक्ष पद के लिए सामने आया। लेकिन उन्होंने विनम्रता से इस पद को ठुकरा दिया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वह किसी पद की आकांक्षी नहीं हैं और राजनीति को वह केवल सेवा का माध्यम मानती हैं। बाद में, जब पार्टी ने उन पर दबाव डाला तो उन्होंने कहा कि वह दतिया के पीतांबरा मंदिर जाएंगी और माँ से स्वीकृति प्राप्त करने के बाद ही कोई निर्णय लेंगी। मंदिर में पूजा करने के बाद, उन्होंने साफ कहा कि माँ नहीं चाहतीं कि वह पद ग्रहण करें, और इसके बाद उन्होंने इस प्रतिज्ञा का जीवनभर पालन किया और कभी कोई पद ग्रहण नहीं किया।

 

1980 में, उन्होंने रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि इंदिरा गांधी को रायबरेली के अलावा मेडक से भी चुनाव लड़ना पड़ा। हालांकि, इंदिरा गांधी दोनों स्थानों से जीतने में सफल रहीं। इसके बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, तब पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए चुना और उपराष्ट्रपति पद के लिए विजयाराजे सिंधिया का नाम प्रस्तावित किया। लेकिन उन्होंने साफ कर दिया कि राजनीति उनके लिए समाजसेवा का एक साधन है, न कि सत्ता हासिल करने का तरीका।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया भारतीय राजनीति की वह महान शख्सियत रहीं जिन्होंने राजनीति को केवल सेवा का माध्यम माना। उनकी निष्ठा, सादगी और समर्पण आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में दुर्लभ हैं। उनका जीवन और उनकी सोच आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक है। उन्होंने न केवल समाजसेवा के लिए अपना जीवन समर्पित किया बल्कि अपनी संपत्ति और समय भी दान कर दिया। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं है, बल्कि एक पवित्र सेवा है जिसे ईमानदारी और समर्पण से निभाया जाना चाहिए। राजमाता विजयाराजे सिंधिया जैसे नेता आज के समय में एक आदर्श प्रतीक हैं जिनसे प्रेरणा ली जा सकती है। उनका जीवन और उनकी विचारधारा हमें यह सिखाती है कि सच्ची सेवा वही है जो समाज के कल्याण के लिए समर्पित हो, और राजनीति का वास्तविक अर्थ सेवा में निहित हो।

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