15 अगस्त 1947 को हमारा देश आज़ाद हुआ था. आज देश को आज़ाद हुए 70 साल पूरे हो गए.यदि अतीत में झांकें तो गुजरे 70 सालों में बेशक देश ने खूब तरक्की की. लोकतंत्र परिपक्व हुआ. विकास के नए प्रतिमान भी स्थापित हुए. लेकिन यदि इस 70 वर्षीय आज़ादी का आकलन करें तो इन 70 सालों में न तो पूर्ण रोजगार मिला,न निर्धनता का समूल नाश हुआ और न महंगाई कम हुई. रोजमर्रा के जीवन में कोई तब्दीली नहीं आई. आरक्षण,राजनीतिक दलों के निज स्वार्थ और वर्ग संघर्ष ने विकास की राह में रोड़े ही अटकाए, जो अब भी जारी है. अभिव्यक्ति की आज़ादी के अतिक्रमण ने कई बार ऐसे दृश्य उपस्थित किए मानो हमें स्वतंत्रता नहीं स्वछंदता मिल गई. छद्म देश भक्ति की आड़ में अपनी मनमर्जी दिखाने का अनुज्ञा पत्र मिल गया. जो यथा समय कई रूपों में प्रकट भी हुआ. देश के विभिन्न राजनीतिक दलों ने देश का दोहन भी खूब किया. यह अब भी जारी है. इतने सालों में भी ऐसा लगता है कि अब भी देश का 'तंत्र', 'लोक' से दूर ही रहा. आज़ादी के बदले मायने हालाँकि इन परिस्थितियों के लिए तत्कालीन सरकारें और जनता दोनों दोषी हैं. जहाँ सरकारों ने सत्ता को साधन माना, वहीं प्रजा भी अपने कर्तव्यों से विमुख होकर सिर्फ अधिकार मांगती रही. विभिन्न राजनीतिक दलों के वैचारिक मतभेदों के बीच प्रचंड बहुमत होने के बावज़ूद भी मतदाताओं की बेबसी खत्म नहीं हुई. 1940 के दशक के उत्तरार्ध में जब देश आज़ाद हुआ था, तब इसे लोकतंत्र माना गया. उन दिनों जनता में भी देश प्रेम हिलोरे मार रहा था. लेकिन जैसे -जैसे वक्त बीतता गया. आजादी के मायने बदलने लगे. देश भक्ति का स्थान छद्म देश भक्ति ने ले लिया. यह अब भी बदस्तूर जारी है. राजनीतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य येन केन सत्ता पाकर उसका दोहन करना बन गया. भले ही इसके लिए देश में कैसे भी हालात निर्मित हो जाएं. यह सब करने से देश के तंत्र में एक स्थायी प्रशासनिक जड़ता स्थापित हो गई. जहाँ त्वरित न्याय पाना नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गया. आज़ादी के जश्न ने एक परम्परा का रूप ले लिया जिसमे आमजन को आत्मिक ख़ुशी और ऊर्जा का अभाव महसूस होने लगा. 'लोक' से दूर रहा 'तंत्र' कहने को तो हमारे देश में लोकतंत्र है. लेकिन वरिष्ठ हो चुके इस लोकतंत्रीय देश में 70 साल बाद भी तंत्र की लोक से दूरी बरकरार रही. हालाँकि लोकतंत्र के राजसूय यज्ञ में देश के मतदाता हर पांच साल में अपनी आहुतियां डालते रहे लेकिन उनका वास्तविक राज्याभिषेक कभी नहीं हुआ. त्रेता युग की तरह राम की जगह भरत का खड़ाऊ राज जारी रहा. 70 सालों बाद भी देश का हर नागरिक याचक की भूमिका में ही है. यह ऐसी बड़ी विडंबना है जो हमें छद्म लोकतंत्र का अहसास कराती है. किसी भी सरकार ने इसे बदलने का साहस नहीं किया, वहीं जनता भी अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में नए परिवर्तन के लिए शंखनाद नहीं कर सकी और सरकारें ताकतवर होती चली गई. अभिव्यक्ति की आज़ादी लेकिन इसका आशय यह नहीं कि जनता ने विद्रोही तेवर नहीं अपनाए. उसकी छटपटाहट संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के उपयोग या दुरूपयोग के रूप में कई बार अभियक्त हुई. इस बार का स्वाधीनता दिवस श्रीकृष्ण जन्म अष्टमी को है.जन्माष्टमी हो और 'कन्हैया' का जिक्र न हो यह कैसे संभव है. यह अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार ही था जो जिसके कारण जेएनयू में कन्हैया देश के खिलाफ नारेबाजी कर आतंक के समर्थकों का महिमा मंडन कर सका. अभियक्ति की आज़ादी के अतिक्रमण का यही एक उदाहरण नहीं है. समय -समय पर यह अभिव्यक्ति की आज़ादी कई मुद्दों और कारणों में कई बार अभिव्यक्त हुई है. ताज़ा मामला निवर्तमान उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी का है जो एक दशक तक देश की सुख सुविधाओं का सुरक्षा के साए में उपभोग करने के बाद जाते -जाते देश के मुस्लिमों के असुरक्षित होने की भावना अभिव्यक्त कर गए. उनके इस अवांछित बयान से देश में गलत सन्देश गया. इन हालातों में प्रेमचंद की कहानी का पात्र हामिद याद आ गया जो खाना बनाते समय अपनी दादी मां के जलते हाथों की चिंता कर बाजार से खिलौनों के बजाय चिमटा लेकर आया था. उस हामिद के चिमटे और इस हामिद के चाबुक का फर्क सभीने देखा.जिसकी खूब आलोचना भी हो रही है. 70 साल और धारा 370 देश में हो रही आतंकवादी घटनाओं के मूल में कश्मीर है. जहाँ पाक प्रायोजित आतंकवाद ने धरती के स्वर्ग कश्मीर को नर्क बना दिया है. वहां रुपए देकर युवाओं के हाथों में पत्थर थमाने की यह साजिश भी विरोध को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन गया. लेकिन उनकी आज़ादी के मायने देश से आज़ादी के हैं. इसके मूल में धारा 370 ही है, जो देश को कश्मीर से पृथक करती है. लोक सभा में प्रचंड बहुमत लेकिन राज्य सभा में अल्प मत होने और कश्मीर की सत्ता में भाजपा की भागीदारी होने के बावज़ूद सरकार इसे हटा नहीं पाई है. यह अफसोसजनक तथ्य गौर करने लायक है कि 1947 में आज़ाद हुआ देश पहले एके 47 तक पहुंचा और अब 70 साल बाद भी धारा 370 की धार कुंद नहीं हो पाई है. इसीलिए कश्मीर जल रहा है. राष्ट्रवाद का पोषण बेशक 2014 से देश का परिदृश्य बदला.जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने.देश का विकास हो रहा है. अवांछित कानून हटाए जा रहे हैं. राष्ट्रवाद पोषित हो रहा है.तुष्टिकरण बंद होने से विपक्ष आहत है. देश की सीमा पर दुश्मन देश को माकूल जवाब मिल रहा है. अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई है. डिजिटल इण्डिया के साथ ही जीएसटी बिल का लागू होना ऐतिहासिक रहा है. इसरो ने अंतरिक्ष में कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं. विश्व में देश की धाक जमी है. युद्ध को आमादा चीन की गीदड़ भभकियों के बीच हमारे बहादुर सैनिक डोकलाम में डटे हुए हैं. यह सब तो ठीक है. लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी कहीं ऐसा लगता है कि देशवासियों द्वारा देश को वह योगदान नहीं मिल रहा जिसकी उसे अपेक्षा है. भ्रष्टाचार, दुष्कर्म और अपराध की अन्य घटनाओं में हमारा मूकदर्शक बना रहना देश को अच्छा नहीं लग रहा है. इस बारे में हमें पहल करने की जरूरत है. कई छोटे कार्य करके भी हम देश में अपना योगदान दे सकते है. इनमे पर्यावरण सुरक्षा,वृक्षारोपण,स्व अनुशासन, स्वच्छता में सहयोग, ट्रैफिक नियमों का पालन,निरक्षरों को शिक्षा आदि देकर भी हम देश की मदद कर सकते है, क्योंकि कोई भी काम छोटा नहीं होता. आइये, आज़ादी की 70 वीं साल गिरह पर हम यह संकल्प लें कि हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिससे देश की छवि ख़राब हो और खुद भी मुश्किल में आ जाएं . जय हिन्द .