सूना घर - दुष्यंत कुमार

सूना घर... सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।

पर कोई आया गया न कोई बोला खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।

फिर घर की खामोशी भर आई मन में चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।

पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं कमरे के कोने पास खिसक आए हैं सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

-दुष्यंत कुमार

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