नई दिल्ली: भारत में गाय संरक्षण आंदोलन की जड़ें देश के धार्मिक और सांस्कृतिक ढांचे में गहरी हैं, हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख और अन्य लोग सदियों से गायों के वध का विरोध कर रहे हैं। इस आंदोलन ने ब्रिटिश काल के दौरान, विशेष रूप से 1860 के दशक में और बाद में 1880 के दशक में स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी जैसे नेताओं के समर्थन से गति प्राप्त की। नेहरू काल में भी 1955 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मलचन्द्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने गौहत्या पर रोक के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया था। उस पर जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में ऐलान कर दिया था कि "मैं गोवधबंदी के खिलाफ हूँ। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें और न कोई कार्यवाही।" दरअसल, नेहरू जी का मानना था कि, भारत में मुस्लिम-ईसाई भी रहते हैं, ऐसा कानून बनाना उन्हें गौहत्या न करने के लिए मजबूर करना होगा। इसके लिए पीएम नेहरू ने मोहम्मद अली जिन्ना को पत्र लिखकर बाकायदा आश्वासन दिया था कि, कांग्रेस कभी भी गौहत्या बंदी का कानून नहीं बनाएगी। ये बात बॉम्बे उच्च न्यायालय के वकील और भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ के बेटे अभिनव चंद्रचूड़ ने अपनी पुस्तक ‘Republic of Religion: The Rise And Full of Colonial Secularism in India’ में लिखी है, वे कहते हैं कि नेहरू को गोरक्षा आंदोलन के प्रति बहुत कम सहानुभूति थी। हालाँकि, गौरक्षा आंदोलन की गूंज भारत से परे तक फैली हुई है, इसे श्रीलंका और म्यांमार जैसे देशों में भारी समर्थन मिला है, जहां इस संबंध में कानून भी बनाए गए हैं। यह लेख गाय संरक्षण आंदोलन से जुड़ी एक प्रमुख घटना और आंकड़ों का एक ऐतिहासिक विवरण प्रदान करता है, जो भारतीय समाज में इसके महत्व पर प्रकाश डालता है। 1966 का खूनी नवंबर:- 1960 के दशक के मध्य में, भारत में गायों की सुरक्षा और गोहत्या के खिलाफ सख्त कानून बनाने की वकालत करने वाला एक उत्साही आंदोलन देखा गया। इस आंदोलन में सबसे आगे स्वामी करपात्री महाराज थे, जो एक श्रद्धेय आध्यात्मिक नेता थे, एक समय तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी उनका काफी सम्मान करती थीं। यहाँ तक कि, इंदिरा गांधी ने करपात्री महाराज से गौहत्या बंद करने का वादा भी किया था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बावजूद इंदिरा गांधी ने अपना वादा नहीं निभाया। टूटा हुआ वादा और आंदोलन:- इंदिरा गांधी की इस वादाखिलाफी के विरुद्ध स्वामी करपात्री महाराज को सड़कों पर उतरना पड़ा। नवंबर 1966 में, हजारों साधु-संतों, गायों और लाखों अन्य लोगों के साथ, उन्होंने गोहत्या के खिलाफ कानून की मांग करते हुए संसद के बाहर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। आगे-आगे गाय चल रहीं थीं और पीछे-पीछे साधू-संत गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग लिए चल रहे थे। जैसे ही आंदोलन तेज हुआ, इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इसकी बेहद तीखी प्रतिक्रिया दी। सरकार द्वारा साधू-संतों पर गोलीबारी के आदेश दे दिए गए, जिसके परिणामस्वरूप अंधाधुंध गोलीबारी हुई, और संतों- गौरक्षकों और गौमाताओं के साथ कई लोगों की जान चली गई। इस घटना के कारण राजधानी में कर्फ्यू लगाना पड़ा और कई संतों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने घटनाओं के दुखद मोड़ के लिए खुद को जिम्मेदार मानते हुए निराशा में इस्तीफा दे दिया, लेकिन पीएम इंदिरा गांधी के चेहरे पर कोई अफ़सोस नज़र नहीं आया। उस समय कई मुख्य समाचार पत्रों ने शासन के भय के कारण इस घटना को नहीं छापा, जिस घटना के चलते देश के गृह मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा हो, उसका जिक्र 'आर्यावर्त', 'केसरी' और गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका 'कल्याण' ने अपने गौ विशेषांक में किया था। सरकार का कहना था कि, इस घटना में केवल 8 लोगों की मौत हुई, लेकिन संत समाज ये आंकड़ा सैकड़ों की तादाद में बताता है, जिसमे गौवंश भी शामिल थे। करपात्री महाराज का श्राप और अवसाद:- गोलीबारी के बाद संसद के सामने संतों, गौरक्षकों और गायों के शवों को उठाते हुए समय स्वामी करपात्री महाराज ने इंदिरा गांधी को श्राप दिया था। उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि ''हमारे पूर्वजों ने संविधान स्वीकार किया था, उसमे हमारा भी अधिकार है, लेकिन इन सत्ता के मद में मतवालों ने आज गौवंश पर गोलियां चलवाई हैं। जाओ हम तुम्हे संतों और गौरक्षकों का खून माफ करते हैं, लेकिन गाय का वध करने का पाप अक्षम्य है। अपने श्राप में उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि गोपाष्टमी के दिन उनका (इंदिरा गांधी का) नाश होगा। इस घटना ने स्वामी करपात्री महाराज को गहरे अवसाद में डाल दिया था। करपात्री महाराज की विरासत: करपात्री महाराज, जिनका मूल नाम हरनारायण ओझा था, ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। दुखद घटनाओं के बावजूद, वह सनातन धर्म समुदाय में एक प्रमुख व्यक्ति बने रहे और उन्हें 'धर्मसम्राट' की उपाधि मिली। वे सिर्फ एक हाथ यानी 'कर' में जितना भोजन आता था, दिन भर में बस उतना ही खाते थे। 'कर' को दिनभर के एकमात्र भोजन का 'पात्र' बनाने के कारण उनका नाम करपात्री महाराज पड़ा था। दुखद रूप से इस हिन्दू संत का श्राप सत्य साबित हुआ, जब 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी के सुरक्षा गार्डों ने ही उन्हें गोलियों से भूनकर उनकी हत्या कर दी, आप आज भी 31 अक्टूबर 1984 का पंचांग देखेंगे, तो पाएंगे कि उस दिन 'गोपाष्टमी' ही थी। स्वामी करपात्री महाराज की कहानी न केवल अधूरे वादों के दुखद परिणामों को दर्शाती है, बल्कि भारत में धार्मिक भावनाओं की सुरक्षा के लिए व्यापक संघर्ष को भी दर्शाती है। उनकी विरासत जीवित है, और मान्यता के लिए नए सिरे से आह्वान एक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था और राष्ट्रीय कल्याण के लिए उनके दृष्टिकोण के स्थायी प्रभाव को रेखांकित करता है। 'न रामायण, न महाभारत, पाठ्यपुस्तकों 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