जिसने काटा प्रोफेसर का हाथ, NIA कोर्ट ने सुनाई उम्रकैद..! उस आतंकी नासर को जमानत

कोच्ची: केरल हाई कोर्ट ने 2010 में हुए चर्चित प्रोफेसर टीजे जोसेफ हाथ काटने के मामले में मुख्य साजिशकर्ता एमके नासर को जमानत दे दी है। नासर को पिछले साल विशेष एनआईए कोर्ट ने यूएपीए, हत्या के प्रयास और साजिश जैसे गंभीर अपराधों का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। लेकिन अब, केरल हाई कोर्ट ने नासर की अपील लंबित होने और मामले में संभावित देरी का हवाला देते हुए उसकी सजा को निलंबित कर जमानत दी है।  

यह मामला भारत में कट्टरपंथ और मजहबी उन्माद के खतरनाक प्रभावों को उजागर करता है। 2010 में प्रोफेसर टीजे जोसेफ पर ईशनिंदा के फर्जी आरोप लगाकर उन पर हमला किया गया था, जिसमें उनका हाथ काट दिया गया। यह हमला कट्टरपंथी संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) के निर्देश पर किया गया था। पीएफआई को भारत सरकार ने आतंकी गतिविधियों के चलते प्रतिबंधित कर दिया है, ये संगठन 2047 तक भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की साजिश रच रहा है। यह संगठन मुस्लिम युवाओं के मन में धार्मिक नफरत भरकर उग्रवादी गतिविधियों में धकेलता है।  

अब इसके एक खूंखार सदस्य को जमानत देते हुए हाई कोर्ट के जस्टिस राजा विजयाराघवन और पीवी बालाकृष्णन की पीठ ने अपने आदेश में कहा कि नासर पहले ही 9 साल जेल में बिता चुका है और अन्य दोषियों को कम सजा देकर रिहा किया जा चुका है। कोर्ट ने माना कि मामले की सुनवाई में अभी और देरी हो सकती है। इस पर, नासर को 1 लाख रूपए के बांड और दो गारंटरों की शर्त पर जमानत दी गई। साथ ही, उसे देश छोड़ने और गवाहों को प्रभावित करने पर रोक लगाई गई है।  

यह जमानत ऐसे समय में दी गई है जब देश में कट्टरपंथ के खिलाफ सख्त कार्रवाई की आवश्यकता है। सवाल उठता है कि क्या एक खूंखार अपराधी और कट्टरपंथी को जमानत देना न्याय की कमजोरी का संकेत नहीं है? एनआईए कोर्ट ने नासर को दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी, क्योंकि यह हमला केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक संरचना और कानून व्यवस्था पर था।  

प्रोफेसर जोसेफ का हाथ काटने की यह घटना पीएफआई द्वारा फैलाए जा रहे धार्मिक उन्माद और हिंसा का परिणाम थी। यह संगठन, जो भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देता है, अब भी युवाओं के मन में नफरत का जहर भरने में सक्रिय है। क्या ऐसे अपराधियों को जमानत देकर उनके हौसले बुलंद नहीं किए जा रहे? सवाल उठता है कि, क्या यह निर्णय न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट नहीं करता और उन पीड़ितों के दर्द को नजरअंदाज नहीं करता, जो ऐसे कट्टरपंथ के शिकार बने हैं। 

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